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Lord सिमान्त-निरूपण। १०१ उसकी लीला टागम्य है। उसकी कोई परीक्षा नहीं कर सकता ॥२६॥ परमात्मा की लीला परमात्मा के बिना और दूसरा कौन जान सकता म जितना डर देखते हैं उतना सब में परमात्मा ही देख पड़ता ॥ २७ ॥ उपासना सब टौर है। आत्माराम का नहीं है ? ठौर ठौर मेंशन भरा जुना -उपासना, श्रात्माराम और गत तीनों एक ही है, गौर सर्वव्यापी ॥२८॥ ऐली मेरी उपासना है : ब. अनुमान में नहीं लाई जा सकती, वह निरंजन के भी उस पार ले जाती है ! ॥२६॥ अन्तरात्मा के योग से कर्म होते है, अंतरात्मा के योग से उपासक बनते वीर अन्तरात्मा ही के योग से कितने ही लोगशानी बनते हैं ॥३०॥ नाना शास्त्र, नाना मत, ये सब परमेश्वर ने कहे हैं। नेमक-अनेमक-या व्यस्त-व्यस्त कर्म के अनुसार होते हैं ॥ ३१ ॥ परमेश्वर को सब कुछ करना पड़ता है. उसमें से जितना ले सके उतना लेना चाहिए । अधि- कार के अनुसार चलना अच्छा है ॥ ३२॥ उपासना में आवाहन करने और विसर्जन करने का ही विधान बताया गया है (अर्थात् माया के उन्द्रय और संहार का ही विचार किया जाता है )-इतना पूर्वपक्ष सुश्रा- उत्तरपन या सिद्धान्त इसके भागे है ॥ ३३ ॥ वेदान्त, सिद्धान्त और 'धादांत' (शारत्र-प्रतीति, गुरु-प्रतीति, आत्म-प्रतीति) इन तीनों में श्रात्म- प्रतीति का प्रमाण मुख्य है। पंचीकरण छोड़ कर महावाक्य, जो हित- कारक है, उसके अर्थ का विचार करना चाहिए ॥ ३४ ॥ दसवाँ समास-सिद्धान्त-निरूपण । ॥ श्रीराम ॥ श्राकाश में सब कुछ होता है और जाता है; पर जो कुछ होता जाता है वह आकाश की तरह ठहरता नहीं। इसी तरह निश्चल (परब्रह्म) में चंचल (माया) नाना प्रकार से होती जाती है; पर वह परब्रह्म की तरह निश्चल नहीं है ॥१॥ धता अंधकार घिर आने पर आकाश काला जान पड़ता है और रवि की किरणें फैल जाने पर वह पीला जान पड़ता है

  • इस लिए परमात्मा की सेवा, और विश्व या जगत् की सेवा करना, एक ही बात है ।

परमात्मा की सेवा को ही उपासना कहते हैं, इस लिए उपासना विश्वपालिनी हुई।