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.: ३८२ दासबोध। [दशक १५ बुद्धि-विहीन पुरुष अनमोल राज्य छोड़ कर भीख माँगता है ॥ १५ ॥ जो जहां उत्पन्न होता है उसे वहीं अच्छा लगता है। अभिमान के कारण लोग ठौर ठौर में धोखा खाते हैं ॥ १६ ॥ जगत् में सभी कहते हैं कि, हम बड़े हैं, सभी कहते हैं कि, हम सुन्दर है और सभी कहते हैं कि, हम चतुर हैं ॥ १७ ॥ इस दृष्टि से तो कोई छोटा नहीं है; परंतु ज्ञाता पुरुष सब जानते हैं ॥ १८ ॥ अपने अपने अभिमान से लोग अनुमान करके चल रहे हैं; परन्तु इस बात का विवेक से विचार करना चाहिए ॥ १६ ॥ मिथ्या का अभिमान रखना और सत्य को बिलकुल छोड़ देना मूर्खता के लक्षण हैं ॥ २० ॥ सत्य के अभिमानी को ही निरभिमानी जानना चाहिए । न्याय और अन्याय एक समान कभी नहीं हो सकते ॥ २१ ॥ न्याय उसे कहते हैं जो शाश्वत है और अन्याय उसे कहते हैं जो अशाश्वत है। मूर्ख और सज्जन एक कैसे हो सकते हैं ? ॥ २२ ॥ कोई निश्चिंत सुख-भोग करते हैं, कोई चोर भगे जाते हैं । बहुतों की महती प्रशंसनीय है, और बहुतों की निन्दनीय है ॥ २३ ॥ आचार विचार के विना जो कुछ किया जाता है वह निष्फल है। इस बात का विचार वही लोग करते हैं जो चतुर और विचक्षण हैं ॥ २४ ॥ सर्वसाधारण लोगों को चतुर पुरुष वश में रख सकता है; चतुर के सामने उन लोगों की कुछ भी नहीं चलती ॥२५॥ इस लिए सुखियों से मित्रता करनी चाहिए। ऐसा करने से असंख्य लोग आ मिलते हैं ॥ २६ ॥ चतुर को चतुर ही अच्छा लगता है, चतुर चतुरों से ही मिलते हैं और यों तो पागल लोग बिना काम धूमते रहते हैं ॥ २७ ॥ चतुर को जिसकी चतुरता मालूम हो जाती है उसके मन से उस चतुर का मन मिल जाता है; पर यह सब गुप्तरूप से करना चाहिए ! ॥ २८ ॥ सामर्थ्यवान् पुरुष का मन रख लेने से-या उसकी इच्छा के अनुसार चलने से बहुत लोग प्रा मिलते हैं और सर्वसाधारण जन तथा सजन, सब लोग, विनती करते ॥ २६॥ पहचान से पहचान खोलना चाहिए, बुद्धि से बुद्धि का विकास करना चाहिए और नीति-न्याय से पाखंड का मार्ग रोकना चाहिए ॥ ३० ॥ ऊपर ऊपर से वावला वेष धरना चाहिए; पर हृदय में नाना प्रकार की कलाएं रहनी चाहिए और किसीका मन न तोड़ना चाहिए ॥ ३१॥ निस्पृह होकर नित नई नई जगहों में घूमनेवाला, प्रत्ययात्मक ब्रह्मशान रखनेवाला, और प्रकट ज्ञाता सजन, जग में दुर्लभ है ॥ ३२ ॥ अनेक प्रकार के सुभापित वचनों से सब के मन प्रसन्न होते हैं । अतएव चारो ओर भ्रमण करके सब को अपनी श्नोर आकर्पित करना चाहिए ॥ ३३ ॥