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पन्द्रहवाँ दशक । पहला समास-चतुर का बर्ताव । ।। श्रीराम ॥ इन अस्थिमांस के शरीरों में जीवात्मा रहता है और वह नाना प्रकार के विकारों में प्रवृत्त भी होता है ॥१॥ जीव विचार करके यह सब जानता है कि, वास्तव में क्या ठोस है और क्या पोला है, अथवा क्या चाहिए और क्या न चाहिए ॥२॥ कोई मांग मांग कर पाता है और किसीको बिना मांगे ही देते हैं । प्रतीति से सुलक्षणों को पहचानना चाहिए ॥३॥ अपने जीव को अन्य जीवों के जीव में डालना चाहिए, आत्मा को आत्मा में मिलाना चाहिए और दूसरों के अन्तःकरण में प्रवेश करके उनके भीतर का भाव जानना चाहिए ॥४॥ जैसे जनेऊ ढीला रहने से उलझ जाता है और ठीक रहने से अच्छा लगता है वैसे ही यह मन भी ढीला रखने से उलझ जाता है और विवेक से ठीक रहता है। इस मन को दूसरे के मन से मिलाना चाहिए ॥ ५॥ ६ ॥ सन्देह से सन्देह ही बढ़ता है, संकोच से कार्य नाश होता है; अतएव, पहले प्रतीति कर लेना चाहिए ॥ ७ ॥ दूसरे के मन की बात मालूम नहीं कर सकते, दूसरे का अन्तःकरण जान नहीं सकते; फिर नाना प्रकार के लोग वश में कैसे हों? ॥ ८॥ वुद्धि के विना लोग दूसरे को वशीकरण करते हैं, पर पीछे से, जब उनका प्रयोग अपूर्ण रह जाता है तब, वे सब लोगों की दृष्टि से उतर जाते हैं ॥ ॥ ॥ सम्पूर्ण जगत् में जगदीश व्याप्त है। फिर चेटकों का प्रयोग किस पर करें ! जो कोई विवेक से विचार करता है वही श्रेष्ठ है ॥१० ॥ श्रेष्ठ पुरुष श्रेष्ठ काम करता है और जो कृत्रिम (बनावटी) काम करता है वह कनिष्ट है । कर्म के अनुसार मनुष्य बुरे और भले होते हैं ॥ ११ ॥ राजा राजपंथ से जाते हैं, चोर चोरपंथ से जाते हैं। मूर्खता और अल्पस्वार्थ के कारण पागल ठगे जाते हैं ॥ १२ ॥ मूर्ख जानता है कि, मैं वड़ा सयाना डूं; पर वास्तव में वह पागल और दीन है । नाना चातुर्यों के चिन्ह चतुर जानता है ॥१३॥ जो जगत् के अन्तःकरण से मिल जाता है वह जगत् का अन्तःकरण ही हो. जाता है और उसे इस लोक या परलोक में किसी बात की कमी नहीं रहती ॥ १४ ॥ वृद्धि भगवान् की दैनगी है, बुद्धि विना मनुष्य कच्चा है