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श्रीसमर्थ रामदासस्वामी । कल्पांत मांडला मोठा, म्लेंच दैत्य बुड़ावया । कैपक्ष घेतला देवी, आनन्दवनभूवनीं ॥ २७ ॥ अर्थात् " म्लेच्छ दैत्यों" का संहार करने के लिए भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ने हमारा पक्ष स्वीकार किया और आनन्दवन-भुवन में घनचोर बुद्ध किया। जब राक्षात् भगवान् भक्तकल्पनुम श्रीरामचन्द्रजी को समर्थ ने अपना सहायक बना लिया तब इसमें आश्चर्य ही क्या है कि उनके सारे मनोरथ सफल हुए। भगवान् की सहायता का जो परिणाम हुआ, अर्थात् धर्मस्थापना और ले,कोद्धार का जो कार्य किया गया उसका उत्साहजनक वर्णन शेष पद्यों में किया गया है। जो लोग महाराष्ट्र के सलहवीं सदी के इतिहास से परिचित हैं वे श्रीरामदासस्वामी के उप- युक्त आत्मचरित-सम्बन्धी सिंहावलोकन की यथार्थता भली भाँति जान सकते हैं । उसके विपय में और अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं । एक और “ स्फुट प्रकरण " में श्रीराम-महिमा गाते हुए “ मुख भुवन" अर्थात् महाराष्ट्र की जाति के सम्बन्ध में वे कहते हैं:- आज कल बाले और धर्म की अवनति और अवहेलना देख कर देव कुपित हुआ है । इसलिए अव देवद्रोहियों को-अत्याचारियों को अपना सब कारवार ( अनीति, अधर्म, अत्याचार ) समंटना चाहिए । लोगों में जागृत्ति होने लगी है—वही देव का चैतन्य- रूप है—उसीसे लोगों की इच्छा सफल होगी। क्या क्या होगा सो महाराष्ट्र में रह कर देखना चाहिए।" स्फुटग्रन्थ समास प्रथम " में भी श्रीराम-गुण वर्णन करते हुए समर्थ के मुख से जो स्वाभाविक वचन निकल पड़े हैं उनमें उन्होंने अपने चरित्र के सिंहावलोकन का कुछ आभास दिया है । इन पद्यों का सारांश ग्रह है:-" दीनानाथ श्रीराम वैभव में समयों के भी समर्थ हैं; जिन्होंने मेरे मनोरथ पूर्ण किये हैं ! मेरी सारी अभिलापायें उन्होंने पूरी की और मुझ दीन को मर्यादा से अधिक बढ़ा दिया । + + + श्रीराम ने विभीपण को लंका दी, इन्द्र की आशंका मेटी और रंक रामदास की प्रतिष्ठा बढ़ा दी । उन्होंने यह स्थान सुन्दर देख कर यहाँ वास किया; 'दास' को पास ही रक्खा और सारा प्रान्त पावन किया । जिन दरी, खोरी और गिरिकन्दराओं को देखते ही डर लगता है, उन्हें भी वैभवसम्पन्न किया । राम का देना ऐसा ही है! १३ "अध्यात्मसार" नामक स्फुट प्रकरण, समर्थचरित्र के सिंहावलोकन की दृष्टि से, बहुत महत्त्व का है । परन्तु, वह बहुत बड़ा होने के कारण उसका विस्तृत सारांश यहाँ नहीं दिया जा सकता । सिर्फ निम्न दो पद्य उद्धृत कर देना ही आवश्यक है:- जीवीचा पुरला हेतू, कामना मन काम ना । घमेड जाहले मोठे, घबाड साधले वळे ।।