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समास ८ अखण्ड ध्यान। ३७५ से ही मन को ढूँढ़े वैसे ही भगवान् को घट घट में व्यापक जानना चाहिये* ॥ २१ ॥ उसके बिना कार्य रुका रहता है, सब कुछ उसीसे हो सकता है और उसीके योग से प्राणी को विवेक प्राप्त होता है ॥२२॥ जागृति में जो व्यापार होता है उसका सम्बन्ध उसीसे रहता है और इसी प्रकार स्वप्न में भी जो कुछ होता है सो सब उसीके सम्बन्ध से होता है ॥ २३ ॥ इस बात का विचार करने से अखंड ध्यान का लक्षण मालूम हो जाता है और परमात्मा का अखंड स्मरण सहज ही होने लगता है ॥ २४ ॥ लोगों में जो दोप देखा जाता है वह यही है कि, वे सहज छोड़ कर कठिन पकड़ते है-चे आत्मा छोड़ कर अनात्मा का ध्यान करते हैं ॥ २५॥ पर वह (अनात्मा का ध्यान) हो ही नहीं सकता- नाना व्यज्ञियां ध्यान में श्राती हैं। व्यर्थ के लिए तकलीफ उठाते हैं ! ॥ २६ ॥ प्रयत्न करके भूर्ति का ध्यान करने से वहां कुछ और का और ही देख पड़ता है। जिसका भास न होना चाहिये-ऐसा ही कुछ विलक्षण भासने लगता है ॥ २७ ॥ पहले स्वयं इस बात का अच्छी तरह विचार • करना चाहिए कि, ध्यान देव का करना चाहिए या देवालय का?॥२८॥ देह देवालय है। उसमें आत्मा देव है; इन दो में से तुम किसमें भक्ति रखना चाहते हो? देव को पहचान कर उसीमें मन लगाना चाहिए ॥ २६ ॥ सञ्चा ध्यान यही है और जनरूढ़ि का ध्यान अन्य है । सच तो यह है कि, अनुभव बिना सव व्यर्थ है ॥ ३०॥ सन्देह से सन्देह ही बढ़ता है। ऐसी दशा में जो ध्यान किया जाता है वह तुरन्त ही भंग हो जाता है । ध्यर्थ के लिए विचारे स्थूल ध्यान में कष्ट सहते हैं ॥ ३१ ॥ परमात्मा को देहधारी मानते हैं, इस लिए उनके मन में नाना विकल्प उठते हैं। भोग, त्याग आदि विपत्तियां देह के योग से ही होती हैं ॥३२॥ नाना प्रकार की बातें मन में आती हैं, उनका विचार करना बहुत कठिन है। जो दिखावे कभी स्वप्न में भी नहीं दिख पड़ते वही, नाना प्रकार से,. दिख पड़ते हैं ॥३३॥ दिखता है सो बतलाया नहीं जा सकता-और जवरदस्ती उसमें विश्वास रखा नहीं जा सकता। इस कारण साधक अन्तःकरण में घबड़ाता है ॥ ३४॥ ध्यान के सांगोपांग बन पड़ने का गवाह ( साक्षी) अपना मन है। मन में विकल्प का दर्शन नहीं होने देना चाहिए ॥ ३५ ॥ चंचल मन स्थिर करके अखंडित ध्यान करने से कौन

  • जैसे सब प्राणिमान में परमेश्वर है वैसे ही वह हंस में भी है। इससे दूसरों का

अन्तःकरण जानना मानो सर्वघटव्यापक भगवान को भगवान् के द्वारा ही देखना है ।