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दासबोध । [दशक १४ ज्ञानियों के दर्शनमात्र से मनुष्य पावन होते हैं ॥१३॥ उनसे मनुष्यमात्र का कल्याण ही होता है; उनसे किसीकी बुराई नहीं होती और उनका हृदय, अखंड रीति से, भगवान में लगा रहता है ॥ १४॥ ऐसा योगी लोगों को तो दुश्चित्त ला देख पड़ता है; पर वास्तव में है वह सावधान- चित्त; क्योंकि उसका चित्त निरंतर परमेश्वर में लगा रहता है ॥ १५ ॥ उसका चित्त उपास्य मूर्ति के ध्यान में मग्न रहता है, अथवा आत्मानु- सन्धान में लगा रहता है, अथवा सदा श्रवण-मनन में उसका चित्त लगा रहता है ॥ १६ ॥ जब पूर्वजों के करोड़ों पुण्यों का संग्रह होता है तभी लोगों को ऐले पुरुप की भेट होती है ॥ १७ ॥ प्रतीतिरहित जो ज्ञान है वह प्रायः सभी अनुमानमात्र है; उसके द्वारा मनुप्यों को सुत्ति नहीं मिल सकती ॥ १८ ॥ इस कारण प्रतीति मुख्य है, बिना प्रतीति के काम नहीं चलता। चतुर लोग 'उपाय' और 'अपाय' दोनों जानते हैं ॥ १६ ॥ कोई कोई पागल सुख के लिए गृहस्थी छोड़ जाते हैं; पर तो भी चे दुख ही दुख में मर जाते हैं और इहलोक तथा परलोक दोनों से वंचित रहते हैं ॥ २० ॥ जो क्रोध करके घर से निकले जाता है वह झगड़ते ही झगड़ते मर जाता है; बहुत लोगों को दुखी करता है और स्वयं भी दुखी होता है ॥ २१ ॥ वैरागी होकर निकल तो जाता है; पर अज्ञान बना रहता है। लोग चेला बन कर उसके साथ लगते हैं, परन्तु गुरु-शिष्य दोनों समान ही अज्ञानरूप बने रहते हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार का अाशावद्ध और अनाचारी यदि गृहस्थी छोड़ कर निकल जाता है तो वह लोगों में अनाचार ही फैलाता है ॥ २३ ॥ घर में भूखों के मारे कष्ट पाकर जो बैरागी हो जाते हैं उन्हें ठौर ठौर में, चोरी करते हुए पाकर, लोग मारते हैं ॥ २४ ॥ परन्तु जो संसार को मिथ्या जान कर, ज्ञान प्राप्त करके, निकल जाता है वह अपने समान लोगों को भी पावन करता है ॥ २५॥ एक की संगति से लोग तर जाते हैं और एक की संगति से डूब जाते हैं, इस लिए (संगति करने के पहले ) उसकी जांच अच्छी तरह कर लेना चाहिए ॥ २६ ॥ जो स्वयं विवेकवान् नहीं है वह दूसरे को उपदेश क्या देगा ? ऐसे अविवेकी को तो भिक्षा भी माँगे नहीं मिलती ॥ २७ ॥ परन्तु जो दूसरे के हृदय की वात जानता है; देश, काल और प्रसंग जानता है, उसे जगत् में किस बात की कमी है? ॥२८॥ जहां नीच प्राणी गुरुत्व पाता है वहां आचार ही डूब जाता है; ऐसी