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३६८ दासबोध। [ दशक १४ ही साधकों के लिए बाधक है । ऐसे वर्णन को ग्रहण करने से अंत:- करण में स्त्रियों का ध्यान बैठता है ॥ २३ ॥ स्त्रियों का लावण्य ध्यान में श्राने से मन कामाकार हो जाता है और ईश्वर का ध्यानस्मरण नहीं हो सकता ॥ २४ ॥ जो स्त्री का वर्णन करने से सुखी होता है और स्त्री- लावण्य के आनन्द में मग्न रहता है, वह ईश्वर से वंचित रहता है ॥ २५ ॥ एक पलभर भी यदि परमात्मा ध्यान में आ जाता है तो कथा में बहुत मन लगता है ॥ २६ ॥ ईश्वर के ध्यान में मन लग जाने पर फिर संसार की याद कैसे ना सकती है ? निश्शंक और निलज होकर कीर्तन करने से अानन्द आता है ॥ २७ ॥ कथा कहनेवाले को न, ताल- ज्ञान और स्वरज्ञान में व्युत्पन्न होना चाहिए तथा उपदेशपूर्ण कीर्तन करना चाहिए ॥ २८ ॥ छप्पन भाषा, नाना कला और कोकिला की सी कंठमधुरता, आदि गौण विषय है; भक्तिमार्ग इनसे अलग है, उसे भक्त ही जानते हैं ॥ २६॥ भक्तों को ईश्वर ही का ध्यान रहता है, ईश्वर को छोड़ कर दूसरे को वे जानते ही नहीं और कलावंतों का मन कला में ही लगा रहता है ॥ ३०॥ श्रीहरि के विना जितनी कला है सब व्यर्थ हैं। भक्तिरहित कलानों में मग्न हुआ पुरुष ईश्वर से प्रत्यक्ष वंचित रहता है ॥ ३१॥ जिस प्रकार सौ से घिरे रहने के कारण चन्दन दुर्मिल होता है, और जैले भूतप्रेत के डर से द्रव्य का भांडार दुष्प्राप्य रहता है, वैसे ही नाना प्रकार की कलाओं के कारण ईश्वर भी दुर्लभ हो जाता है ॥ ३२॥ सर्वज्ञ परमात्मा को छोड़ कर नाद में मग्न होना मानो प्रत्यक्ष बीच में विघ्न उपस्थित करना है ॥ ३३ ॥ मन तो स्वर में फंसा हुआ है। फिर श्रीहरि का चिंतन कौन करे ? यह तो वैसा ही हाल हुश्रा जैसे कोई चोर किसीको जबरदस्ती पकड़ कर उससे सेवा कराता हो! ॥३४॥ परमात्मा की प्राप्ति में रागज्ञान विघ्न डालता है और मन को पकड़ कर, स्वर के पीछे ले जाता है ॥ ३५ ॥ राजा की भेट करने के लिए जाने से जैसे जबरदस्ती कोई बेगारी पकड़ ले वैसा ही हाल कला से कलावंत का हो जाता है ॥ ३६ ॥ ईश्वर में मन रख कर जो कोई हरिकथा कहता है उसीको इस संसार में धन्य जानो ॥ ३७॥ जिसे हरिकथा से प्रीति है, और नित्य नई प्रीति बढ़ती जाती है, उसे भगवान की प्राप्ति होगी ॥ ३८ ॥ जहां हरिकथा हो रही हो वहां के लिए सब छोड़ कर जो दौड़ता है और आलस्य, निद्रा तथा स्वार्थ को छोड़ कर जो हरिकथा में तत्पर होता है ॥ ३६॥ और जो हरिभक्त के घर में नीच कृत्य का भी अंगीकार करता है और सब प्रकार से स्वयं यत्नपूर्वक साह्यभूत होता