यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समास १०] निस्पृह का वर्ताव। उसे सब सार ढूँढ़ लेना चाहिए और यदि कोई उसका खोज करे तो एकाएक पकड़ में न आना चाहिये ! ॥४॥ सच्चा निस्पृह महन्त कीर्ति- रूप से तो जगत् में बहुत्त विख्यात होता है-यहां तक कि छोटे बड़े सब उसे जानते हैं परन्तु वह किसी एक भेष में नहीं देखा जाता ॥५॥ उसकी अटल कीर्ति प्रत्यक्ष संसार में छाई रहती है; पर वह स्वयं लोगों को मालूम नहीं होता; लोग जब उसे हूँढ़ते हैं तो उसका पता ही नहीं चलता ! ॥ ६ ॥ भेप की सुन्दरता को वह दूपण समझता है और कीर्ति की बड़ाई को वह भूपण समझता है तथा अखंडरूप से उसके मन में विचार-स्कृर्तियां उठा करती हैं ॥ ७ ॥ पहचान के लोगों को छोड़ता जाता है-सदा-सर्वदा नित्य-नूतन परिचय करता रहता है। लोग उसके मन की थाह पाना चाहते हैं, पर कुछ भी उसकी इच्छा मालूम नहीं होती ॥ ८ ॥ वह पूरा पूरा किसीकी ओर देखता नहीं; पूरा पूरा किसी- से बोलता नहीं; पूरा पूरा एक जगह रहता नहीं-उठ कर चल देता है ! ॥ ॥ जहां जाना है वह जगह बतलाता नहीं; और जहां के लिए

बतलाता है वहां तो जाता नहीं-सारांश, अपनी दशा किसीके अनुमान

में नहीं आने देता ! ॥ १०॥ लोग जो कुछ उसके साथ करना चाहते हैं उससे वह बच कर निकल जाता है। लोग उसके विषय में जो भावना करते हैं उसे वह झूठ बना देता है और लोग जो कुछ उसके विषय में तर्क करते हैं उसे वह निष्फल कर देता है ॥ ११ ॥ लोग उसके दर्शन करना चाहते हैं; उसको गरज नहीं। लोग सेवा में हाजिर हैं; उसकी इच्छा नहीं ॥ १२॥ एवं, वह योगेश्वर (महन्त, निस्पृह) कल्पना में नहीं आता; तर्क उसके सामने नहीं चलता; और कदापि उसकी भावना नहीं की जा सकती ॥ १३ ॥ इस प्रकार उसका मन नहीं मिलता। उसका शरीर एक जगह नहीं रहता; और एक क्षणभर भी वह 'कथा-कीर्तन' नहीं भूलता ॥ १४॥ लोग उसके विषय में जो संकल्प विकल्प करते हैं वे सब निष्फल हो जाते हैं । वह योगेश्वर, लोगों को, स्वयं उनकी ही वृत्ति 'से, लजा देता है! ॥ १५ ॥ जब बहुत लोग परीक्षा कर लें-जब बहुतों के मन में स्थान पा जाय-तब कहीं जानना चाहिए कि, अव हमारा बड़ा भारी काम होगया ॥१६॥ अखंड रीति से एकान्त का सेवन करना चाहिए; अभ्यास ही करते रहना चाहिए, तथा अन्य लोगों को भी साथ लेकर, अपना समय सार्थक करते रहना चाहिए ॥ १७ ॥ जितने कुछ उत्तम गुण हों उन सब को पहले स्वयं ग्रहण करना चाहिए; इसके बाद वही गुण फिर दूसरे लोगों को सिखलाना चाहिए । बहुत बड़ा समुदाय