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२६८ दासबोध। [ दशक ११ होता है । यही पीछे विस्तारपूर्वक बतलाया जा चुका है। अस्तु, इस प्रकार माया का निरास हो जाने पर निराकार स्वरूपस्थिति बच रहती है ॥ १६ ॥ वहां जीव-शिव, पिंड-ब्रह्मांड, आदि का झगड़ा मिट जाता है और अविद्यामाया का सम्पूर्ण गड़बड़ नाश हो जाता है ॥ १७ ॥ यह प्रलय विवेक से भी किया जा सकता है, उसे 'विवेक-प्रलय कहते हैं । उसे विवेकी ही जानते है । मूर्ख बिचारे क्या जाने ? ॥ १८ ॥ सारी सृष्टि का खोज करने पर जान पड़ता है कि, एक चंचल है और एक अचल है। चंचल का कर्ता चंचल रूपी ही है ॥ १६ ॥ जो सब शरीरों में वर्तता है; सब कर्तृत्वों में प्रवृत्त होता है और जो करके भी अकर्ता कहा जाता है ॥ २० ॥ जो रंक से लेकर राजा तक, और ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इत्यादि देवों तक, सब में बर्तता है और जो इन्द्रियों के द्वारा सम्पूर्ण शरीरों का व्यापार चलाता है ॥२१॥ उसे लोग 'परमात्मा कहते हैं और उसीको सर्वकर्ता भी जानते हैं। पर उसका भी नाश होता है । विवेक से इसकी प्रतीति करना चाहिए ॥ २२॥ वह कुत्ते में रह कर गुरगुराता है, सूकर में रह कर कुरकुराता है और गधे में रह कर जोर से रेंकता है ॥२३॥ साधारण लोगों का ध्यान सिर्फ इन नाना प्रकार के शरीरों की ओर रहता है; परन्तु विवेकी लोग इन शरीरों के भीतर की वस्तु देखते हैं; अर्थात् वे 'पंडित' (विवेकी) लोग समदर्शी होते हैं।-॥ २४ ॥ विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनिचैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः ।। वे लोग प्राणिमात्र को एक ही समान इस प्रकार देखते हैं, कि ऊपर ऊपर देखने में देह तो अलग अलग हैं; पर भीतर सब के एक ही वस्तु है ॥ २५ ॥ यद्यपि देखने में ये अनन्त प्राणी देख पड़ते हैं, पर ये सब एक ही शक्ति से बर्तते हैं; और वह शक्ति "जगज्ज्योति " या "संज्ञा-शक्ति" है ॥ २६ ॥ यह 'ज्योति' या 'शक्ति' कान में रह कर अनेक प्रकार के शब्दों का ज्ञान करती है, त्वचा में रह कर शीत और उष्ण को जानती है और चनु में रह कर अनेक पदार्थों के देखने का शान करती है ॥ २७ ॥ तथा रसना में रह कर रस, घ्राण में रह कर गन्ध.और कर्मेन्द्रियों में रह कर नाना प्रकार के विषय-सुखों को जानती है ॥ २८ ॥ इस प्रकार वह सूक्ष्मरूप से अन्तर में रह कर स्थूल की 11