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ग्यारहवाँ दशक । पहला समास-सिद्धान्त-निरूपण । ॥ श्रीराम ॥ यह तो मालूम हो जाता है कि, आकाश से आयु कैसे होता है। परन्तु, बायु से अग्नि कैसे होता है, सो सावधान होकर सुनोः- ॥१॥ भय की कठिन रगड़ से अग्नि, और शीतल मन्द वायु से पानी उत्पन्न होताई ॥२॥ श्राप से यह पृथ्वी होती है, जो नाना बीजों का रूप है । बीज उत्पत्ति होना स्वाभाविक ही है ॥३॥ सृष्टि आदि ही से कल्पनामय है और कल्पना मूलमाया की है तथा उसीसे (त्रिगुणात्मक) निदेवों की उत्पत्ति हुई है ॥ ४॥ निश्चल (परब्रह्म ) में जो चंचल (मृत्तमाया) होती है वह केवल कल्पना ही है-वही अष्टधा प्रकृति का मुल है १५ ।। अर्थात् कल्पना ही अष्टधा प्रकृति है और अष्टधा प्रकृति ही कल्पना है । अष्टधा प्रकृति मूलमाया से उत्पन्न हुई है ॥ ६॥ पांच नूतर तीन गुण मिस कर पाठ हुए-इसी लिए इसे अष्टधा प्रकृति कहते हैं ॥ ७॥ यह आदि में कल्पनारूप से होती है और फिर आगे, वहीं विस्तृत होकर, स्मृष्टिरूप में स्थूलता को प्राप्त होती है ॥८॥ जो मूल में होती है वह मूलमाया है; उससे जो त्रिगुण होते हैं वह गुणमाया है; नौर उसले सृष्टिरूप में जो स्थूलता को प्राप्त होती है वह अविद्यामाया ॥६॥ उसीसे फिर (जारज, उद्भिज, अंडज और स्वेदज नामक) चार खानि; (परा, पश्यन्ति, मध्यमा, वैखरी नामक) चार वाणी, अनेक योनि और अनन्त व्यक्तियां प्रकट होकर विस्तृत होती हैं ॥१०॥ इस प्रकार तो उत्पत्ति होती है और संहार का हाल पिछले दशक में स्पष्ट करके बतलाया ही जा चुका है ॥ ११ ॥ तथापि यहां पर फिर संक्षिप्तरूप से बतलाते हैं । ध्यान देकर सुनिये:- ॥ १२ ॥ शास्त्र में कल्पान्त का वर्णन इस प्रकार है कि, सौ वर्ष तक अनावृष्टि रहती है, इस कारण सारी जीवसृष्टि समाप्त हो जाती है ॥ १३ ॥ बारह कला करके सूर्य तपता है, इससे पृथ्वी राख हो जाती है और फिर वह राख जल में शुल जाती है ॥ १४ ॥ फिर उस जल को भी अग्नि सोख लेता है। अग्नि को वायु मारता है और फिर स्वयं वायु भी लीन हो जाता है तथा निराकार जहाँ का तहाँ रह जाता ॥ १५ ॥ इस प्रकार सृष्टि-संहार