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समान ?"] निश्चल और चंचल । है:॥ १२॥ वह न पुरुष है: न स्त्री है: न बाल है; न तरुण है; और न अमारी ई । यह नपुंसक शरीर का धारण करनेवाला है। पर नपुं- नक भी वह नहीं है ॥४३॥ वह सब देहों को चलाता है, वह करके भी अकर्ना कहलाता है, वह क्षेत्रज्ञ है: क्षेत्रवासी है और उसको देही तक अवा भी कहते हैं ॥ ४ ॥ हाविमा पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते ॥ १ ॥ जगन में दो प्रकार के पुरुष होते हैं-एक चर और दूसरे अक्षर । सर्व भृतों को क्षर और कुटस्थ को अक्षर कहते हैं ॥ ४५ ॥ उत्तम पुरुप और दी है-वह निष्प्रपंच, निष्कलंक, निरंजन, परमात्मा, एक और निर्विकारी है ॥४६॥ साधकों को चारों देहों का निरसन करके देहातीत होना चाहिए । देहातीत को ही अनन्य भक्त जानना चाहिए ॥४७॥ जव देहमान का निरसन हो जाता है तब अंतरात्मा भी कहां वचता है ? निर्विकार में विकार के लिए ठौर ही नहीं है * ॥४८॥ विवेक-द्वारा यह निश्चयात्मक प्रत्यय कर लेना चाहिए कि, निश्चल एक परब्रह्म है और जितना चंचल है उतना सब मायिक है ॥४६॥ इसमें बहुत खटखट की अवश्यता नहीं क्योंकि हैं दो ही-एक चंचल और एक निश्चल । इन दो में से शाश्वत कौन है, यह बात केवल ज्ञान से पहचानना चाहिए ॥५०॥ सारासार-विचार इस लिए कहा है कि, जिससे असार छोड़ कर सार ले लिया जाय । ज्ञानी लोग सदा यह वात विचारते रहते हैं कि, नित्य क्या है और अनित्य क्या है ॥ ५१ ॥ जहां ज्ञान ही विज्ञान हो जाता है, जहां मन ही उन्मन हो जाता है, ऐसे अात्मा में चंचलता कैसे हो सकती है ? ॥ ५२ ॥ बतलाने-बतलाने का कोई काम नहीं, अपने ही अनुभव से जानना चाहिए । विना अनुभव के व्यर्थ परिश्रम करना ही पाप है ॥ ५३॥ सत्य के समान सुकृत नहीं और असत्य के बराबर पाप नहीं और बिना प्रतीति के कहीं समाधान नहीं ॥ ५४॥ 'सत्य' का अर्थ है ब्रह्मा और यही पुण्य है, तथा असत्य का अर्थ है माया; यही पाप

  • " अन्तरात्मा " शब्दप्रयोग देह की अपेक्षा से हुआ है, इस लिए देह का ही

निरास हो जाने पर अन्तरात्मा कहां बचता है ? ब्रह्मस्वरूप निर्विकार है-उसमें विकार नहीं । " अन्तरात्मा" शब्द का प्रयोग देह की उपाधि के योग से हुआ है-वह उपाधि ब्रह्म में नहीं है।