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पुरुष और प्रकृति। २६१ देखना चाहिए ॥ ३॥ वहां निश्चल और चंचल दोनों दिखते हैं-उनकी प्रतीति विवेक-वारा करना चाहिए। निश्चल में जो चंचलस्थिति है वही वायु ॥ ४ ॥ उसमें जो चेतनाशक्ति है वहीं जगज्ज्योति की स्फूर्ति । वायु और चेतनाशति मिल कर मूलमाया कहलाती है ॥ ५ ॥ सन्तिा कहने से जान पड़ता है कि, यह कोई स्त्री होगी; पर वहां चलो तो क्या है ? पानी ! इसी प्रकार विवेकी पुरुष माया को समझे ! !! घायु और चेतनाशक्ति था जगज्ज्योति मिल कर मूलमाया कहाती है। दुरुप और प्रकृति इन्हींका नाम है ॥ ७ ॥ वायु को प्रकृति कहते हैं और जगज्ज्योति को पुरुष कहते हैं-इन्हींका नाम है पुरुष-प्रकृति या शिव-शक्ति ॥८॥ इस बात में विश्वास रखना चाहिए कि, वायु में जो चलता-विशेष है वही प्रकृति में पुरुप है ॥ ६ ॥ वायु 'शक्ति' है और चेतना 'शिव' है-इन्हींको लोग सदा 'अर्धनारी नटेश्वर' कहा करते हैं ॥ १०॥ वायु में चेतनागुरण है और यही ईश्वर का लक्षण है-इसीसे फिर नागे त्रिगुण हुए हैं ॥ ११॥ त्रिगुण में सत्वगुण शुद्ध चेतना का लना है इसका देहधारी स्वरूप स्वयं विष्णु हुन्या है ॥१२॥ भगवद्गीता कहती हैं कि, उसी विष्णु के अंश से जगत् चलता है। यह गोलक-धंधा विचार से कैसा स्पष्ट हो जाता है ! ॥ १३ ॥ एक ही चेतनाशक्ति सन प्राणियों में फैली हुई है और अपने जानपन से सब शरीरों की रक्षा करती है ॥ १४॥ उसीका नाम जगज्योति है-उसीसे प्राणिमात्र जीते हैं-इन्सकी साक्षात् प्रतीति प्रत्यक्ष देख लेना चाहिए ॥१५॥ पक्षी, श्वापद, कीड़ा, चीटी, आदि, जगत् का कोई भी प्राणी हो, उसके शरीर में चेतना निरन्तर खेला करती है ॥ १६ ॥ उसीके गुण से, उसीके जानपन से, शरीर को भगाते हैं, वचाते हैं, और छिपाते हैं ॥ १७॥ वह सारे जगत् का पालन करती है-इसी लिए उसका नाम जगज्योति है; इसके चले जाने पर प्राणी जहां के तहां मर जाते हैं ॥ १८॥ मूलमाया चेतना का विकार, आगे चल कर, इस प्रकार विस्तृत हुआ है जैसे पानी का तुपार बन कर अनंत रेणुओं के रूप में होता है ॥ १६ ॥ उसी प्रकार देव, देवता, दैवत, भूत, इत्यादि मिथ्या नहीं कहे जा सकते; ये सब अपने अपने सामर्थ्य से इस सृष्टि में फिरते रहते हैं ॥ २०॥ ये सब सदा वायुस्वरूप से विचरा करते हैं और अपने इच्छानुसार रूप बदलते रहते हैं। अज्ञान प्राणी अपने भ्रम और संकल्प से उनके द्वारा पीड़ित होते हैं ॥ २१ ॥ ज्ञाता में संकल्प होता ही नहीं; इसी कारण ये सब उसे नहीं बाधते; अतएव आत्मज्ञान का अभ्यास अवश्य करना चाहिए ॥ २२॥