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२५२ दासबोध। [ दशक ९ यदि उसका ज्ञान करने के लिए हम उसे ढूंढ़ते हैं तो वह नित्य और निरन्तर जान पड़ता है। उसके हूँढ़ने से विकारी भी निर्विकारी हो जाता है ॥ २१ ॥ वह केवल परमात्मा है-उसमें मायामल नहीं है। वह अखंड है। कामना को छूत उसमें कभी लगी ही नहीं ॥ २२ ॥ ऐसा जो योगिराज है वह स्वाभाविक ही आत्मा है; वह वेदबीज पूर्णब्रह्म है; सिर्फ देह की ओर देखने से वह जाना नहीं जा सकता ॥ २३ ॥ देह की भावना करने से देह ही दिखती है; पर गुह्य बात अलग ही है! खोजने से मालूम होता है कि, उस ( योगिराज ) का जन्ममरण नहीं है ॥ २४ ॥ जिसका जन्ममरण होता है वह अंतरात्मा कदापि नहीं है। जो है ही नहीं उसे लावें तो कहां से, और कैसे ? ॥ २५ ॥ निर्गुण के जन्म अथवा मृत्यु की कल्पना करने से स्वयं अपने को ही जन्म और मृत्यु मिलती है ॥ २६ ॥ दोपहर को सूर्य पर थूकने से वह शृंक अपने ही ऊपर आ गिरता है । इसी प्रकार दूसरे की भलाई-चुराई की चिंतना करने से अपनी ही भलाई-बुराई होती है ॥ २७ ॥ समर्थराज की महिमा जानने से समाधान होता है; परन्तु यदि कुत्ता भूकने लगे तो (क्या कहा जाय ? आखिर ) वह कुत्ता ही है ! ॥ २८ ॥ ज्ञानी सत्य- स्वरूप है, पर अज्ञानी (उसको-ज्ञानी को) मनुष्यरूप देखता है। भाव के अनुसार ईश्वर प्राप्त होता है ॥ २६ ॥ ईश्वर निराकार निर्गुण है और लोग पापाण को ईश्वर मानते हैं ! पापाण तो फूट जाता है; पर निर्गुण कैसे सूट सकता है?॥३०॥ईश्वर सदोदित एक ही बना है; पर लोगों ने उसे वहुत प्रकार का बना डाला है ! पर यह कब हो सकता है कि, वह बहुत प्रकार का हो जाय ? ॥ ३१ ॥ उसी प्रकार आत्मज्ञानी साधु अपने ज्ञान से पूर्ण समाधानी होता है । वह विवेक से आत्मनिवेदनी और आत्म- रूपी होता है ॥ ३२॥ काठ का रूप जल कर, उसकी अग्नि, काठ के आकार की देख पड़ती है; पर यह नहीं हो सकता कि, वह सचमुच काठ हो जाय ॥ ३३ ॥ कपूर के समान ही ज्ञानी के देह की दशा है। एक बार कपूर जल जाने से फिर वह केला के उदर में कभी नहीं आ सकता । इसी प्रकार ज्ञानी का देह, एक बार अदृश्य हो जाने पर, फिर जन्म नहीं पाता ॥ ३४ ॥ भुना हुआ बीज उग नहीं सकता, जला हुना वस्त्र फिर बन नहीं सकता और गंगा में दूसरी नदी का प्रवाह देखने से अलग नहीं देख पड़ता ! ॥ ३५ ॥ वह प्रवाह गंगा के पोछे दिखता है; (क्योंकि ) गंगा एकदेशी है; परन्तु साधु का कुछ भास ही नहीं होता (क्योंकि जिसमें