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२४८ दासबोध। [दशक ९ 5 . को संतोप होता है; पर यह सच्चा देखना नहीं है ॥ ७॥ दृष्टि को जो कुछ दिखता है वह नाश होता है। इस विषय में श्रुति है (कि " यदृष्टं तनष्टं")। अतएव, जो दृष्टि को देख पड़ता है वह स्वरूप' नहीं है; (क्योंकि दृष्टि को देख पड़नेवाला पदार्थ नश्वर है और स्वरूप अवि- नाशी है) ॥८॥ स्वरूप निराभास है और दृश्य का भास होता है।' वेदान्तशास्त्र में भास का नाश कहा है ॥ ६॥ देखने पर दृश्य ही का भास होता है; 'वस्तु ' दृश्य से अलग है; किन्तु स्वानुभव से देखने पर वह दृश्य के भीतर बाहर-सब जगह-दिखती है ॥ १०॥ जो निरा- भाल और निर्गुण है उसकी पहचान क्या बताई जाय; पर यह जान लो कि, वह 'स्वरूप' है अपने पास ही ॥ ११ ॥ जैसे आकाश में भास भासता है, और आकाश सब में है, उसी प्रकार जगदीश भी सब जगह भीतर-बाहर है ॥ १२ ॥ पानी में है; पर भीगता नहीं, पृथ्वी में है; पर घिसता नहीं और अग्नि में होने पर भी उसका स्वरूप जलता नहीं ॥ १३ ॥ वह कीचड़ में है; पर सनता नहीं, वायु में है; पर उड़ता नहीं और सोने में है; पर सोने के समान गढ़ता नहीं ॥ १४ ॥ ऐसा वह सदा संचित है; पर कभी उसका आकलन नहीं होता उस अभेद में भेद बढ़ानेवाली यह अहंता है ॥ १५ ॥ इस लिए अब उस अहंता: के लक्षण बतलाता हूं; सावधान होकर सुनियेः-॥ १६ ॥ जो स्वरूप की ओर जाती है, जो अनुभव के साथ रहती है और जो अनुभव के सब शब्द बोल कर बतलाती है ॥ १७ ॥ जो कहती है कि, "मैं ही 'स्वरूप' हूं" वही अहंता का रूप है-वह निराकार में आप ही आप अलग हो जाती है ॥ १८ ॥ अहंता भ्रम से स्वयं अपने ही को ब्रह्म समझती है; पर बहुत सूक्ष्म विचार करने पर उसका भ्रम प्रकट हो जाता है ॥ १६॥ " मैं ही ब्रह्म हूं"-यह हेतु-यह कहना-कल्पना से आकलन किया जा सकता है; परन्तु वस्तु' कल्पनातीत है; इसी लिए तो उस अनंत के अन्त का आकलन नहीं हो सकता ॥२०॥ अष्ट देहों के उद्भूत होने का नाम अन्वय और उस उद्भव के संहार होने का नाम व्यतिरेक है । प्रष्ट देहों का उद्भूत और संहार बतलाया जाना एक शाब्दिक ज्ञान है; परन्तु निःशब्द जो परब्रह्म है उसे सूक्ष्म विवेक से ढूंढ़ना चाहिए ॥ २१ ॥ पहले वाच्यांश लीजिए; फिर लक्ष्यांश को पह-

  • यहां बहुत ऊंची अहंता वतलाई जायगी; वास्तव में अहंता वही है जो कहती हो

कि मैं स्वयं ब्रह्मस्वरूप हूं। " अहं ब्रह्मास्मि " वाली अहंता से यहां तात्पर्य है। . -