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नात्म-ज्ञाना अकर्तव्यः जिसमें कर्तव्य नहीं है और अक्षयः जिसका क्षय नहीं है, दिला वह ब्रह्म है ॥ २० ॥ अरूप, अलक्ष और अनन्त का अर्थ मुझे पतला- ॥ २६ ॥ अल्प अर्थात् जिसमें रूप नहीं; अलक्ष अर्यात्. जिसको ख नहीं सकत-जो 'अलख ' है-और अनंत अर्थात् जिसका अंत नहीं, ऐसा वह परब्रह्म ॥ २२ ॥ अपार, अटल, अतक्र्य का अर्थ मुझे, कृपा करके, बताइये ॥ २३ ॥ अपार; जिसका पार नहीं है, अटल; जो टल नहीं सकता और अतळ; जिसका तर्क नहीं किया जा सकता, ऐसा वह ब्रह्म है ॥ २४ ॥ अद्वैत, अदृश्य और अच्युत का 'अर्थ मुझे बताइये ॥ २५ ॥ अद्वैत अर्थात् जिसमें द्वैत नहीं, अदृश्य; को दृश्य नहीं और अच्युत जो कभी च्युत नहीं हो सकता, ऐसा वह परब्रह्म है ॥ २६ अछेद्य, अदाध और अक्लेद्य का अर्थ मुझे वताइये ॥ २७ ॥ अछेद्य जो छैदा नहीं जा सकता, अदाह्य; जो जलाया नहीं जा जकता और अल्लेद्य जो धुलाया नहीं जा सकता, ऐसा वह ब्रह्म है ॥ २८॥ परब्रह्म उसे कहते हैं जो सब से परे है। उसके स्वरूप का विचार करने से स्वयं 'हम' वही है-यह वात अनुभवसे, सद्गुरु करने पर, मालूम होती है ॥ २६ ॥ दूसरा समास-आत्म-ज्ञान । ॥ श्रीराम ॥ जितना कुछ साकार देख पड़ता है उतना सब कल्पान्त में नाश हो जाता है; पर स्वरूप-परब्रह्म-स्वरूप-सदा बना ही रहता है ॥१॥ जो सब में सार 'वस्तु' है, जो मिथ्या नहीं है; सत्य है, और जो नित्य-निर- न्तर बना रहता है ॥२॥ वही भगवान का मुख्य रूप है-उसीको स्वरूप.' कहते हैं। इसके अतिरिक्त और भी उसके बहुत से नाम हैं ॥३॥ उसका ज्ञान करने के लिए उसमें नामनिर्देश किया जाता है; वास्तव में वह स्वरूप नामातीत है और सदा बना ही रहता हैं ॥४॥ वह दृश्य में भीतर-बाहर, सब जगह है; पर वह विश्व से छिपा हुआ भी है (अर्थात् किसीको देख भी नहीं पड़ता)। देखो, वह कैसा पास रह कर भी गुप्त ही रहता है ! ॥ ५॥ परमेश्वर का यह वर्णन सुन कर दृष्टि को देखने की इच्छा होती है; पर देखने से सारा दृश्य ही. दृश्य देख पड़ता है ॥ ६ ॥ दृष्टि का विषय जो दृश्य है उसीको देखने से दृष्टि 5 पर.१