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२१२ दासबोध। [ दशक ८ अंतःकरण में ज्ञान नहीं है, और जिसने सजनों को नहीं पहचाना है, उसे यह मिथ्याभान माया सत्य ही जान पड़ती है ॥ ३६॥ जो जैसा निश्चय करता है उसको वैसा ही फलता है । जैसे शीशे में जो देखता है उसीकी छाया उसमें मालूम होती है, वैसा ही हाल माया का है !॥३७॥ कोई कहता है, माया कहां से आई ? जो कुछ है सब ब्रह्मही है; घी चाहे जमा हो, चाहे पिघला हो-है सब धी ही! ॥ ३८ ॥ इस पर कोई उत्तर देता है कि, परमात्म-स्वरूप में 'जमा' और 'पिघला' कहीं नहीं कहा; उसके लिए तुम्हारा यह दृष्टान्त लग नहीं सकता॥३६॥कोई कहता है 'सर्व- ब्रह्म' का मर्म जिसे नहीं मालूम होता, समझ लो कि, उसके चित्त का भ्रम अभी गया ही नहीं है।॥ ४०॥ कोई कहता है कि ईश्वर तो एक ही है, वहां 'सर्व' कहां से लाये 'सर्वब्रह्म' तो अपूर्व आश्चर्य मालूम होता है ! ॥ ४१ ॥ कोई कहता है कि, सच्चा एक ही है; दूसरा कुछ है ही नहीं-इस प्रकार स्वाभाविक ही 'सर्व ब्रह्म' है ! ॥४२॥ कोई, शास्त्र के आधार से, कहता है कि, सब एकदम मिथ्या है; अब जो कुछ बचा, वही सच्चा ब्रह्म है ! ॥ ४३ ॥ कोई कहता है कि, अलंकार और सोने में कोई भेद नहीं है-अर्थात् सोना भी सोना ही है और सोने का अलंकार भी सोना ही है-विवाद में क्यों व्यर्थ परिश्रम करते हो ! ॥ ४४ ॥ इस पर कोई उत्तर देता है। यह हीन और एकदेशी उपमा वस्तु से कैसे लग सकती है ? वर्णव्यता और अव्यक्त से बराबरी नहीं हो सकती! ॥ ४५ ॥ सुवर्ण को देखने से जान पड़ता है कि, उसमें आदि ही से व्यक्तता है। सोने का अलंकार (आभूषण) देखने से सोना ही देख पड़ता है ॥ ४६॥ अर्थात् सोना आदि से ही व्यक्त है। वह जड़, एकदेशीय और पीला है। ऐसे अपूर्ण का दृष्टान्त, पूर्णब्रह्म के लिए, कैसे दिया जा सकता है ? ॥ ४७ ॥ इस पर फिर वही उत्तर देता हैः-समझाने के लिए एकदेशीय दृष्टान्त भी देना पड़ता है। सिंधु और लहर में भिन्नता कहां है ? ॥ ४८ ॥ उत्तम, मध्यम और निकृष्ट, तीन प्रकार के दृष्टान्त होते हैं- किसी दृष्टान्त से तो तथ्य मालूम हो जाता है और किसीसे व्यर्थ संदेह बढ़ता है ॥ ४६॥ इस पर दूसरा कोई कहता है, कैसा सिंधु और कहां की लहर ! अचल से कहीं चल की बराबरी की जा सकती है ? माया को सत्य नहीं मानना चाहिए ! ॥ ५० ॥ कोई कहता है कि, माया कल्पना है। यह लोगों को नाना प्रकार का भास दिखाती है । यो तो इसे ब्रह्म ही समझना चाहिए। ॥५१॥ इस प्रकार, आपस में, वाद-विवाद