यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुक्ता कौन है? समान ६] छठवाँ समास-मुक्त कौन है ? ॥ श्रीराम ॥ श्रोता कहता है:-"आपने कल्पनातीत और अद्वैत ब्रह्म का निरूपण करके मुझे क्षणभर के लिए तदाकार कर दिया ॥१॥ परन्तु मैं तदाकार होकर बिलकुल ब्रह्म ही बनना चाहता हूं और चंचलता से फिर कभी इस संसार में नहीं माना चाहता ! ॥२॥ उस कल्पना-रहित सुख में संसार-दुख नहीं है, इस लिए वहीं हो जाना चाहिए ! ॥३॥ वास्तव में, अध्यात्म-श्रवण से ब्रह्म ही हो जाना चाहिए; परन्तु यहां तो फिर वृत्ति पर आना पड़ता है ! यह लदा का आना-जाना मिटता ही नहीं !॥४॥ मैं क्षणभर के लिए ऊंचे पर चढ़ कर ब्रह्म ही हो जाता हूं; परन्तु तुरन्त ही फिर नीचे, वृत्ति में, आ गिरता हूं ॥ ५॥ जैसे लड़के, किसी उड़नेवाले कीटक के पैर में डोरा बांध कर उसे नीचे-ऊपर उड़ाते हैं वैसे ही मैं कहां तक नीचे ऊपर प्रत्यावर्तन या आवागमन करते रहूं? ॥६॥ ऐसा कुछ होना चाहिए, किजिससे उपदेश सुनते समय, तदाकार होते ही, यह शरीर पतन हो जाय अथवा अपने पराये का भान न रहे ! ॥७॥परन्तु वैसा न होते हुए मैं जो कुछ बोलता हूं उसी में मुझे लज्जा आती है-और एक बार ब्रह्म बन कर, फिर गृहस्थी में पड़ना भी विपरीत दिखता है ! ॥८॥ यह ज्ञान, मुझे स्वयं ठीक नहीं जान पड़ता, कि एक वार जो स्वयं ब्रह्म ही वन चुका है वह फिर उस दशा लौट क्यों आता है ! या तो बिलकुल ब्रह्म ही हो जाना चाहिए, या तो फिर संसार ही में रहना चाहिए-दोनों ओर कहां तक भटका करे? ॥१०॥ अध्यात्म-निरूपण सुनते समय तो ज्ञान प्रबल होता है (यहां तक कि स्वयं ब्रह्म में तदाकार हो जाता है); और निरूपण उठ जाने पर वह ज्ञान नष्ट हो जाता है तथा फिर उसी ब्रह्मरूप (मनुष्य) को काम क्रोध घेर लेते हैं ॥ ११ ॥ यह कैसा ब्रह्म हुआ-यह तो दोनों ओर से गया-गृहस्थी तो योही, खींचा-तानी ही में, चली गयी ! ॥ १२ ॥ ब्रह्मानन्द लेते समय गृहस्थी के कर्म पीछे खींचते है ! और गृहकर्म करते समय ब्रह्म में प्रीति उपजती है! ॥ १३॥ इस प्रकार ब्रह्म-सुख को तो गृहस्थी ले जाती है और गार्हस्थ्य सुख ब्रह्मज्ञान से चला जाता है-दोनों अधूरे रहते हैं-एक भी पूरा नहीं होता। ॥ १४॥ इस कारण, मेरा चित्त चंचल और दुश्चित्त होगया है ! क्या करूं, सो कुछ भी निश्चित नहीं होता!"॥१५॥ सारांश,