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समास ३] चौदह मायिक ब्रह्म। एक+अक्षर-ब्रह्म) कहां से आया? अतएव इस ब्रह्म में भी शाश्वतता का कोई चिन्ह नहीं देख पड़ता ॥ २५ ॥ 'खंब्रह्म' कहा है; परन्तु वह श्राकाश की तरह शून्य, अर्थात् अज्ञानस्वरूप है; अतएव उसे भी शाश्वतब्रह्म नहीं कह सकते ॥ २६ ॥ अब 'सर्वब्रह्म' को लीजिएं; यह तो सभी जानते हैं कि 'सर्व' (अर्थात् पंचभूतात्मक सर्व दृश्य,) का अन्त होगा-और वेदान्तशास्त्र में उसी 'अन्त' को 'कल्पान्त' या 'ब्राप्रलय' कहते भी हैं; अतएव 'सर्वब्रह्म' भी नश्वर ही ठहरा-शाश्वत वह भी नहीं ॥ २७-२८ ॥ अचल में चलन, निर्गुण में गुण, और निराकार में श्राकार, विचक्षण पुरुप नहीं मानते ॥ २६ ॥ पंचभूतात्मक सम्पूर्ण पंच- भूतात्मक रचना-प्रत्यक्ष ही नाशचन्त है-अतएव, 'सर्वब्रह्म' हो ही कैसे सकता है ? ॥ ३० ॥ अस्तु । जब सब का नाश हो जायगा तब रहेगा कौन; और देखेगा कौन ? ॥ ३९ ॥ अब 'चैतन्यब्रह्म' को देखिये; यह जिसको (पंचभूतात्मक रचना को, या सर्वबहा को) चेतना देता है वही जव मायिक सिद्ध हो चुका, तब इसका 'चैतन्य'-पन कहां रहा ? अत- एव यह भी अशाश्वत सिद्ध हुआ ! ॥ ३२॥ अब, जब प्रजा ('चैतन्य' और 'सर्व') ही नहीं है तब फिर वास्तव में सत्ता ही कहाँ से आई ? श्रतएव 'सत्ताब्रह्म' भी कुछ नहीं है । अब 'साक्षब्रह्म' लीजिए; जब सत्ता ही नहीं है तब साक्ष किसका ? इस लिए 'साक्षब्राह्म' भी नश्वर ही ठहरा! ॥ ३३ ॥ 'सगुणब्रह्म' तो प्रत्यक्ष ही नाशवन्त है। इसके लिए विशेष प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं! ॥ ३४ ॥ अच्छा, अब 'निर्गुण- ब्रह्म' लीजिए; पहले तो जब 'गुण' ही नहीं है तव 'निर्गुण' यह नाम ही कहां से आया ? गुण के विना कहीं गौरव प्राप्त हो सकता है ? अतएवं 'निर्गुणब्रह्म' तो बिलकुल ही व्यर्थ है ! ॥ ३५ ॥ यह ब्रह्म तो ऐसा ही हुआ, जैसे कोई कहे कि माया ऐसी है जैसा मृगजल! अथवा, जैसे कोई आकाश की कल्पना करे, तो वह कहां तक सत्य हो सकती है? ॥ ३६ ॥ अथवा जैसे, जब ग्राम ही नहीं है तब सीमा कहां से आवेगी? या, जब जन्म ही नहीं है तब जीवात्मा कहां से आवेगा? अंथवा अद्वैत के लिए द्वैत की उपमा कैले लगेगी? यही हाल 'गुण' के विना 'निर्गुण' ब्रह्म का है !॥ ३७ ॥ जैसे माया के बिना सत्ता, पदार्थ के विना साक्षीपन और अविद्या के विना चैतत्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार 'गुण' के विना 'निर्गुण' भी नहीं हो सकता ॥ ३८ ॥ अस्तु । सत्ता, चैतन्य,, साक्षी, इत्यादि सब 'गुण' ही से हैं और जो 'निर्गुण' है उसमें गुण कहां से आया ? ॥ ३६॥ और, जिसमें गुण नहीं है.उसे य