यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७४ दासबोध । [ दशक . पंचभूतों का विस्तार ही जानना चाहिए ॥ ५५ ॥ माया दृश्य है; देख पड़ती है, वह भासमान है; मन में भासती है, क्षणभंगुर है; विवेक से देखने पर नाश हो जाती है ॥५६॥ माया अनेकरूपी और विश्वरूपी है; वहं विष्णु का स्वरूप है जितनी ही बतलाई जाय थोड़ी है ॥ ५७ ॥ वह बहुरूपी और बहुरंग है; वह ईश्वर का अधिष्ठान है; तथा देखने में वह अभंग और अखिल जान पड़ती है ॥ ५८ ॥ सृष्टि की रचना माया ही है; अपनी कल्पना भी माया ही है; वह ज्ञान के बिना तोड़ने से टूट नहीं सकती ॥ ५६ ॥ अस्तु । यह माया का संक्षिप्त वर्णन हुआ। अब अगले समास में ब्रह्मज्ञान का निरूपण किया जायगा । उससे माया एकदम नष्ट हो जाती है ॥ ६०॥ ६१ ॥ दूसरा समास-ब्रह्म-निरूपण । ॥ श्रीराम ॥ ब्रह्म को साधु लोग निर्गुण, निराकार, निस्संग, निर्विकार और अपर- म्पार बतलाते हैं ॥ १ ॥ शास्त्रों में ब्रह्म को सर्वव्यापक, अनेकों में एक और शाश्वत कहा है ॥२॥ वह अच्युत, अनन्त, सर्वदा प्रकाशित, कल्पनारहित और निर्विकल्प है ॥ ३॥ वह इस दृश्य से परे है। वह शून्यत्व से भी अलग है और इंन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता ॥४॥ ब्रह्म दृष्टि से नहीं दिखता; वह सूर्ख की समझ में नहीं आता; और साधु के बिना अनुभव में नहीं आता ॥ ५॥ वह सब से बड़ा है; उसके समान दूसरा और कोई श्रेष्ठ नहीं है और ब्रह्मा, विष्णु, महेश, श्रादि के लिए भी वह अगोचर और सूक्ष्म है ॥ ६ ॥ शब्द द्वारा जो कुछ बतलाते हैं उससे भी ब्रह्म अलग है; परन्तु अध्यात्म-श्रवण के अभ्यास से वह मिलता है ॥७॥ उसके अनंत नाम हैं, पर है वह नामातीत । उसका कारण कुछ नहीं है और उसका दृष्टान्त देते अच्छा नहीं लगता ॥८॥ ब्रह्म के समान अन्य कुछ सत्य नहीं है, इसी लिए उसका दृष्टान्त नहीं. दिया जा सकता ॥ ६ ॥ श्रुति यह सिद्धान्त बतलाती है किः- यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसासह ।

  • क्योंकि विष्णु का स्वरूप सगुण ब्रह्म है, और ब्रह्म माया की ही उपाधि से सगुण होता

है; इस लिए माया ही विष्णु का रूप हुई ।