यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समास ३] माया की उत्पत्ति। - तो 'हम' वही (निर्गुण ब्रह्म) हैं; परन्तु सद्गुरु के विना यह बात समझ नहीं पड़ती ॥ २५ ॥ जब हम सम्पूर्ण सारासार का विचार करते हैं तब जो अत्तार है सो निकल जाता है और निर्गुण ब्रह्म, जो सार है, वही रह जाता है ॥ २६ ॥ सारी सृष्टि में उपर्युक्त ब्रह्म ही व्याप्त है; परन्तु यह सब सृष्टि नश्वर है और ब्रह्म अविनाशी है ॥ २७ ॥ विवेक से जब हम इस सम्पूर्ण तृष्टि का संहार करते हैं-अर्थात् जब हम इस पंचभूतात्मक सृष्टि का पृथक्करण करते हैं-तब सार और असार अलग अलग निकल नाते हैं और अपना अपने ' को मिल जाता है -अर्थात् आत्मलाभ होता है ॥२८॥ स्वयं ही 'मैं' पन की कल्पना कर ली गई है; पर वास्तव में वह कुछ नहीं है क्योंकि तत्व-निरसन के बाद 'मैं'-पन चला जाता है और केवल निर्गुण श्रात्मा रह जाता है ॥ २६ ॥ तत्वों का निरसन होने पर जो निर्गुण आत्मा बच रहता है वही "मैं" है-अर्थात् तत्व-निर- सन के बाद मैंपन नहीं रह सकता है ॥ ३० ॥ जव तत्वों के साथ मैं. पन चला जाता है, तब स्वाभाविक ही 'वह स्वयं निर्गुण आत्मा हो जाता है और इस प्रकार, " सोहं" के अनुभव से, आत्मनिवेदन हो जाता है ॥ ३१ ॥ और जहां आत्मनिवेदन हो गया, कि वस देव श्रीर भक्त में एकता हो जाती है और विभक्तता (भिन्नता) छोड़ कर वह सच्चा भक्त' वन जाता है ॥ ३२ ॥ निर्गुण में जन्म-मरण, पाप-पुण्य, आदि कुछ नहीं है-ऐसे निर्गुण में अनन्य (एक) होने पर वह स्वयं मुश हो जाता है ॥३३॥ पञ्चभूतों के घेर लेने पर प्राणी संशय में फँस जाता है और स्वयं 'अपने' को भूल कर कोहं (कौन हूं मैं ) कहने लगता है ॥ ३४ ॥ भूतों में फँस जाने पर कहता है 'कोह;' और विवेक करने पर कहता है 'सोहं, (वह (ब्रह्म ) मैं हूं.): और अनन्य (एक) होने पर 'कोहं,' सोहं, नादि सब छूट जाते हैं ॥ ३५ ॥ उपर्युक्त अनुभव होने के बाद, जो रहता है वही सन्त-स्वरूप है। ऐसा संत, सदेह रहते हुए ही, देहातीत है ॥३६॥ अस्तु । विषय गहन होने के कारण एक बार बतलाने सेसन्देह नहीं जाता, इस लिए बार बार वही बतलाना पड़ता है-हम से, प्रसंग-विशेष पर, कहीं कहीं, ऐसा हुआ है; श्रोता लोग क्षमा करें* ॥ ३७॥ ht

  • इसे पुनरुक्ति कहते हैं; कहीं कहीं इसे दोप मानते हैं। यहां पर श्री समर्थ

रामदास स्वामी ने स्वयं उसका खुलासा कर दिया है-लोगों का सन्देह मिटाने के लिए उन्हें चार बार वही बात कहनी पड़ी है।