यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शलबोध। स्वामी माना के चरणों में लिपट गये। माता और पुत्र दोनों के नेत्रों में प्रेमाश्रु की धारा उमड़ आई । माता राणुवाई जब अपने पुत्र के मस्तक और मुख पर प्यार का हाथ फेरने लगी तब उनके हाथ में बढ़े हुए जटाजूट और दाड़ी का स्पर्श हुआ और वे बड़े आश्चर्य से बोली, " अरे नारायण ! " तू. कितना बड़ा होगया! मेरी आँखों से तो कुछ सूझ नहीं पड़ता; अपने नारायण को कैसे देव अपनी मा के ये दीन बचन सुन कर समर्थ का हृहय भर आया । उन्होंने ज्योंही अपना पवित्र हाथ माता के नेत्रों पर फिराया याही उन्हें फिर पूर्ववत् सब कुछ देख पड़ने लगा। उस समय राणुवाई के सामने आनन्द की लहरें उठने लगी । उन्होंने आश्चर्यित होकर पूछा, यह भूत-विद्या तूने कहां से सीसी?" समर्थ ने तत्काल एक पद बनाकर इस प्रश्न का उत्तर दिया। उस पद का सारांश इस प्रकार है:- "बेटा! जो भूत अयोध्या के महलों में संचार करता था, जो भूत कौशल्या के स्तनों में लगा था, जिस भूत के चरण का स्पर्श होने से पत्थर को स्त्री हो गई और जिस भूत ने और भी इसी प्रकार के अनेक चमत्कारपूर्ण कार्य किये वही सर्व महाभूतों का प्राणभूत मुझमें संचार करता है । यह विद्या उसीको कृपा का फल है।" माता और पुत्र में इसी प्रकार का वार्तालाप हो रहा था; कि इतने में . समर्थ के ज्येष्ठ बन्धु श्रेष्ठ भी बाहर से आ गये । समर्थ उन्हें देखते ही चरणों पर गिर पड़े। दोनों भाइयों ने आपस में प्रेम-पूर्वक आलिंगन किया ! श्रीरामदारा स्वामी कई दिन तक अपने घर में आनन्द-पूर्वक रहे । प्रति दिन भोजन करके दोनों भाई एक साथ वैठते और अध्यात्मज्ञान विषयक वातीलाप किया करते थे। समर्थ की बुद्धि का चमत्कार देख कर श्रेष्ठ को परम हर्ष हुआ । समर्थ जव अपनी माता से विदा होने लगे तव माता ने बहुत शोक प्रकट किया। यह देख कर उन्होंने अपनी माता को वही आत्मवोध बतलाया जो भागवत में कपिल मुनि ने अपनी माता को दिया है । उस बोध से माता राणुबाई को वहुत शान्ति मिली। इसके बाद रामदास स्वामी, अपने बन्धु से आज्ञा लेकर, गोदावरी-प्रदक्षिणा के लिए आगे बढ़े । समुद्रसंगम पर गोदावरी के सात प्रवाह हो गये हैं। प्रत्येक प्रवाह की दाहिनी ओर से परिक्रमा करते हुए वे दक्षिण किनारे पर गये। वहाँ से त्र्यम्बकेश्वर में गोदावरी के उद्गमस्थान पर जाकर, पंचवटी के दक्षिण ओर पहुँचे और वहाँ श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन करके गोदावरी-प्रदक्षिणा पूर्ण की । इस प्रकार बारह वर्ष तप और बारह वर्ष तीर्थयात्रा तथा देश पर्यटन करके उन्होंने जनोद्धार करने का सामर्थ प्राप्त किया। इस समय उनका बय छत्तीस वर्ष का था।