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समास ३] माया की उत्पत्ति। १४७ के साथ, देह को प्रारब्ध पर छोड़ देता है ॥ ४२ ॥ इसे आत्मज्ञान कहते हैं-इसीले परम शान्ति मिलती है और इसी ज्ञान से यह जीव परब्रह्म से असिन्न होकर रहता है-सञ्चा 'भक्त' (मिला हुआ) हो जाता है ]{ ४३ ॥ उस समय उसकी यह स्थिति हो जाती है कि, अव जो कुछ होना हो, सो हो और जो कुछ जाना हो, सो जाय; जन्ममृत्यु की मन में जो शाशंका थी वह मिट गई-अब कुछ भी हुआ करे! ॥४४॥ इस प्रकार वह जन्म-मरण से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त करता है । यह सव सन्तसमागम की महिमा है॥४५॥ 1 तीसरा समास-माया की उत्पत्ति । ।। श्रीराम ॥ निर्गुण आत्मा निर्मल है; वह श्राकाश की तरह सर्वव्यापक है; और अचल तथा सर्वकाल प्रकाशित है ॥१॥ वह अखंड है; बड़े से भी बड़ा है और आकाश से भी अधिक विस्तृत तथा सूक्ष्म है ॥ २॥ वह देख नहीं पड़ता और उसका भास नहीं होता; वह उपजता नहीं और न नाश होता है; वह न आता है और न जाता है॥३॥ वह चलता नहीं, ट- लता नहीं, टूटता नहीं, फूटता नहीं, वनता नहीं, विगड़ता नहीं ॥४॥ वह सदा सन्मुख ही रहता है; वह निष्कलंक और निखिल है और श्रा- काश-पाताल-सब में व्याप्त है ॥ ५॥ वह निर्गुण ब्रह्म अविनाश है और सगुण माया नाशवान् है-इस जगत् में सगुण और निर्गुण दोनों मिले हैं ॥६॥ योगीश्वर लोग इस कर्दम (मिश्रण) का विचार इस प्रकार करते हैं, जैसे क्षीर और नीर का विवेक राजहंस करते हैं ॥ ७ ॥ इस सम्पूर्ण चराचर पञ्चभूतात्मक सृष्टि में आत्मा व्यापक है यह वात नित्य-अनित्य का विवेक करने से जान पड़ती है ॥ ८ ॥ ईख की तरह, विवेक से, इस जगत् का रस, या सार, जो ईश्वर है, उसे ले लेना चाहिए और बाकी चीहुर (मायिक दृश्य पदार्थ) छोड़ देना चाहिए ॥ १ ॥ रस की उपमा तो दी, पर वह नाशवान् और पतला है,

  • जव प्राणी ब्रह्मज्ञान होने से स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है-ब्रह्म में लीन हो जाता है-

उस समय उसे इस पंचभौतिक सृष्टि, या दृश्य पदार्थ, अथवा प्रापंचिक कष्ट, आदि किसीका ज्ञान नहीं रह जाता-ये सब उसके लिए शून्य हो जाते हैं-वह अखंड ब्रह्म ही हो जाता है; ऐसी दशा में उसकी देह प्रारब्ध के भरोसे पर रह जाती है-अर्थात इस देह का फिर कुछ भी हुआ करे-वाहे वह रहे; चाहे नाश हो; परन्तु 'वह' सदा अविनाश रहेगा।