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मुमुन्न लाग् । प्रनिधि अभ्यागतों को भी संतुष्ट नहीं किया ॥ १२॥ पूर्वपापों के कारण सुभाले कुछ नहीं बन पड़ा ! मेरा मन सब कुमार्ग ही में पड़ा रहा! ।॥१३॥ कभी शरीर को कटित नहीं किया, परोपकार नहीं किया और काम-मद के कारण आचार की रक्षा भी नहीं हो सकी! ॥१४॥ भक्षिा माता को हुदा दिया; शान्ति और विश्रान्ति का भंग किया और मूर्खता के कारण सबुद्धि और सहासना को भ्रष्ट किया! ॥१५॥ अव जीवन कैसे सार्थक हो ? मैंने अनेक व्यर्थ दोप कर डाले! विवेक तो मेरे पास कभी आया ही नहीं ! ॥ १६ ॥ कौन उपाय किया जाय? कैस परलोक मिले ? हा परमात्मन् ! श्रापको कैसे प्राप्त करूं! ॥ १७ ॥ मेरे मन में सद्भाव .तो कमी उपजा ही नहीं, जन्मभर मान और प्रतिष्टा ही के प्राप्त करने में लगा रहा, और कर्म का खटाटोप, ऊपर ऊपर (दिखाऊ) तथा दांभिकता से, किया ॥ १८ ॥ पेट के लिए हरि-कीर्तन किया, देवताओं को हाट- वाट में लगाया ही दैच ! अपनी बोटी बुद्धि में ही जानता हूं !! ॥१६॥ मन में अभिमान रख कर, मैं सदा ऊपर ऊपर से गर्चरहित बातें करता रहा और ध्यान करने के बहाने से भीतर भीतर धन की चिन्ता करता रहा ! ॥ २० ॥ मैंने शास्त्रज्ञान से जन्मभर लोगों को ठगा; पेट के लिए संतों की निन्दा की। हे ईश्वर ! मरे हृदय में नाना प्रकार के दोप भरे हैं !! ॥ २१ ॥ जो कुछ सत्य देखा उ किा खण्डन किया और मिथ्या ही का प्रतिपादन किया, इसी प्रकार, उदर भरने के लिए, मैंने अनेक कपट-कर्म किये!" ॥ २२॥ इस तरह मुमुच पुरुष मन ही मन पछताता है और अध्यात्म-निरू- पण सुन कर पहले की अपनी सब चालें बदल देता है ॥२३॥ पुण्यमार्ग की ओर उसका मन दौड़ता है, वह सत्संग को इच्छा करता है और संसार से विरक्त होता है ॥ २४ ॥ वह यह. कहता है कि “ चक्रवर्ती राजा तो अपना राज्य छोड़ कर चले ही गये-फिर मरे वैभव की क्या गिनती है। इस लिए अव सत्संगति करना चाहिए!" ॥ २५ ॥ वह अपने अचगुणों पर विचार करता है और विरक्ति-वल से उन्हें पहचानता है तथा पश्चात्ताप से वह मन ही मन अपनी इस प्रकार निन्दा करता है:-॥ २६ ॥ मैं कैसा अपकारी और दंभधारी हूं ! मैं बड़ा अनाचारी हूँ!

  • धन पैदा करने के लिए लोग बाजारों में, मेलों में, रास्तों पर, मूर्तियां रखते हैं; जिससे

सब कोई पैसा उन पर चढ़ावे । यह बड़ा पाप-कर्म है।