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दासबोध। [ दशक ५ स्त्री और धन ही को समझता है ॥४७॥ जागते मैं, स्वप्न में, रात में, दिन में, प्रत्येक समय, उसको ऐसा विषय का अध्यास लगता है कि जिसके मारे उसे क्षण का भी अवकाश नहीं मिलता ॥४८॥ . ये बद्ध के लक्षण सुमुन्न-अवस्था में बदल जाते हैं । उसके लक्षण भी अगले समास में सुनिये ॥ ४६॥ आठवाँ समास-सुसुक्षु-लक्षण । ।। श्रीराम ॥ कुलाभिमान के कारण जिस मनुप्य में अनेक चंद्र कुलक्षण आते हैं उसका मुखावलोकन करने से भी दोप ही लगता है ॥ १॥ उस वद्ध प्राणी को सौभाग्यवश, संसार में स्वैर-वर्तन करते हुए, कालान्तर में, खेद प्राप्त होता है ॥२॥ इस प्रकार, वह संसार-दुःख से दुखित होता है; त्रिविध-तापों से संतप्त होता है; और सौभाग्यवश, अध्यात्म-निरूपण सुन कर, अन्तःकरण में पछताता है ॥३॥ प्रपंच (गृहस्थी ) से उदास होता है, मन में विपयों से ऊब जाता है और कहता है कि "वस, अव, गृहस्थी के हौसले बहुत पूरे हो चुके ॥ ४॥ सारा प्रपंच चला जायगा, यहां के श्रम का कोई फल न होगा; अब कुछ अपना समय सार्थक करूं" ॥५॥ इस प्रकार बुद्धि पलट जाती है; हृदय में चिन्तित होता है और कहता है कि “ मेरी सब उमर व्यर्थ गई !" ॥६॥ पहले के किये हुए अनेक दोपों की याद आती है, और वे सब दोष मूर्तिमान् उसके आगे आ जाते हैं ॥७॥ वह यमयातना का स्मरण कर करके मन में डरता है और अपने अगणित पापों पर इस प्रकार पछताता है:-॥८॥ " मेरे मन में तो कभी पुण्य का विचार भी नहीं पाया; पाप के पहाड़ जमा होगये हैं; अब यह दुस्तर संसार कैसे पार होऊ ? ॥ ६ ॥ जन्मभर अपने दोषों को छिपाया और भले भले आदमियों के गुणों में दोष ल- गाये! हे ईश्वर, मैंने संत, साधु और सज्जनों की व्यर्थ ही निन्दा की! ॥ १०॥ निन्दा के समान और संसार में कोई दोष नहीं है, और यही दोष विशेष कर मुझसे हुआ है-मेरे अवगुणों से श्राकाश डूबने. चाहता है ! ॥११॥ संतों को नहीं पहचाना, भगवान् की अर्चा नहीं की, और.