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to दासबोध। इतना कहकर समर्थ हिमालय की ओर चले। हिमालय में उन्होंने बदरीनाथ, केदारनाथ और उत्तरमानस की यात्रा का । हिमालय के एक अनि उन शिखर पर ‘श्चतमारुती का स्थान है । वहीं, शीत या हिन की अधिकता के कारण, काई पुरुष नहीं जा सकता। श्रीयुत शंकराचार्यजी यहीं तक गये थे। श्रीसमर्थ भी बहाँ तक गये और हनुमानजी के दर्शन करके, कुछ दिन में, लौट आये। इस प्रकार उत्तर और पश्चिम की यात्रा पूर्ण करके, अनेक मनोरन तथा बिकट स्थानों में घूमते हुए, वे एकदम पूर्व की ओर जग- नाथजी को चले। जगन्नाथपुरी में पहुंचने पर पानाम नामक एक ब्राह्मण समर्थ के शरण में आया । उसे मंत्र देकर समर्थ ने रामदासी सम्प्रदाय का उपदेश दिया और पुरी में श्रीराम की मूर्ति स्थापित करो, मठ की व्यवस्था उसी प्रामण को सौंप दी। जगन्नाथजी के दर्शन करके पूर्वी समुद्र के किनारे प्रवास करते हुए, वे दक्षिण में रामेश्वर की गये। वहाँ देव- दर्शन और पूजन-अर्चन करके समर्थ जी लंका तक गये। लंका में पहुँचकर उन्हें रामायणकालीन विभीषण और हनुनान् आदि रामसेवकों का स्मरण आचा। वहाँ कई दिन रह कर उन्होंने विभीषण क्षादि की प्रार्थना विषयक कुछ कविता स्वी। लंका से लौट कर वे आदिरंग, मध्यरंग, अंतरंग, श्रीजनार्दन और दर्शसेन आदि क्षेत्रों में जाकर देवदर्शन करते हुए, गोकर्ण-नहायलेश्वर में पहुँचे । वहाँ कुछ दिन रहकर शेषाद्रि पर्वत पर गये; और फिर श्रीवेंकटेश, श्रीशैल्यमालिकार्जुन, बाल नरसिंह, पालक नरसिंह, शत्रोटी, वीरभद्र और पुराण-प्रसिद्ध परलिंगों के दर्शन करके किष्किन्धा नगरी में आये। वहाँ पन्यासर, मण्यमूक पर्वत आदि रामायण-प्रसिद्ध स्थान देखकर, श्रीकार्तिकस्वामी के के दर्शन को देवगिरी पर गये। वहाँ से दक्षिणकाशी ( करवीर-क्षेत्र) को लौट आये। इसके बाद कोकण के रास्ते से, पश्चिमी समुद्र के किनारे होते हुए, महाबलेश्वर में आकर उन्होंने श्रीपंढरीनाथ भीमाशंकर के दर्शन किये और श्रीव्यम्बकेश्वर को जाकर वे नासिक-पंचवटी में लौट आये। इस प्रकार बारह वर्ष पैदल प्रवास करके श्रीसमर्थ ने विविध प्रकार के आधिभौतिक तापों का अनुभव प्राप्त किया, अनेक प्रकार के लोगों से मिले, भिन्न भिन्न जनखभाचों की परीक्षा की, भाँति भाँति के सामाजिक, धार्मिक और राजकीय आचार-व्यवहार देखे, भिन्न भिन्न प्रान्तों के राज्य-प्रबन्ध का अवलोकन किया, नाना प्रकार से सन्तसमागम करके अध्यात्मज्ञान का रहस्य जाना और प्रकृति के अनेक चमत्कारिक और रमणीय दृश्यों का निरीक्षण किया। सारांश, खदेश-सम्बन्धी सारी आवश्यक बातों का ज्ञान, देश-पर्यटन और तीर्थयात्रा करके, उन्होंने प्राप्त किया। इस सम्पूर्ण ज्ञान का परिपाक उनके ग्रन्थों में हुआ है। विशेष कर उनका " दासबोध" तो इसी प्रकार के अनुभव जन्य ज्ञान का समुद्र है । ऐसी कोई भी बात नहीं है जो उसमें न हो । स्थान स्थान पर प्रकृति के मनोहर और