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११० वह सद्गुरु दासबोध। [ दशक ५ उपदेश मात्र से संसार के सारे संकट दूर करता है वह सद्गुरु है॥१६॥ वेदों का गूढ़ तत्व प्रकट करके जो शिष्य के हृदय में अंकित कर देता है है ॥ १७ ॥ वेदों, शास्त्रों और महानुभावों का अनुभव एक ही है और वही अनुभव सद्गुरुरूप है ॥ १८॥ वह संदेह को जड़ से नाश कर देता है, और स्वधर्म का, आदरपूर्वक, प्रतिपालन करता है । वेद के विरुद्ध अन्य कोई बातें उसके पास नहीं रहतीं ॥ १६ ॥ जो मन के पीछे चलता हो-अथवा यो कहिये, जिसने मन को जीत नहीं पाया है, वह गुरु नहीं है; भिखारी है; लोभ में आकर शिष्यों के पीछे लगता है ॥ २० ॥ जो शिष्यों को साधन में नहीं लगाते और इन्द्रिय-दमन नहीं कराते-ऐसे गुरु यदि कौड़ी के तीन तीन मिले तो भी न ग्रहण करना चाहिए ॥ २१ ॥ जो ज्ञान का बोध कराता हो, जो अविद्या का जड़ से. नाश करता हो, और इंद्रिय-दमन का प्रतिपादन करता हो उसे सद्गुरु जानो ॥ २२ ॥ जो केवल द्रव्य के लिए विके हुए हैं, जो अति दुराशा से दीन- रूप बनाये हुए केवल शिष्य के भरोसे रहते हैं वे गुरु नहीं हैं ॥ २३ ॥ पापिन कामना जिसके गले पड़ी हुई है। इस कारण, जो शिष्य के मन के अनुसार चल कर, उसे सन्तुष्ट रखना ही अपना कर्तव्य समझता है और जो उससे दब कर चलता है वह महा अधमाधम है, चोट्टा है, ठग है, पापी और द्रव्यभोंदू है ॥ २४ ॥ २५ ॥ जिस प्रकार दुराचारी वैद्य रोगी के सन के मुताविक चल कर उसका सर्वस्व हरण करता है और प्रान्त में, दब्बू वन कर, उसका प्राण भी लेता है उसी प्रकार उता पापी और द्रव्यभोंदू गुरु, शिष्य की चापलूसी करके, उसे और भी अधिक संसार- बन्धन में डालता है और परमात्मा से मिलने नहीं देता। ऐसा गुरु नहीं चाहिए ॥ २६ ॥ २७ ॥ जो शुरु शुद्ध ब्रह्मज्ञानी होते हुए भी कर्मयोगी, अर्थात् सत्कर्मों का प्रा- चरण करनेवाला, होता है वही सद्गुरु है और वही शिष्य को परमात्म- दर्शन करा सकता है ॥ २८ ॥ जिनमें ऊपरी आडम्बर दिखाने और कान में संत्र ढूंकने ही भर का ज्ञान है वे पापी गुरु, परमात्मा से विरुद्ध हैं ॥ २६ ॥ गुरुप्रतीत, शास्त्रप्रतीति और आत्मप्रतीति, तीनों की अनन्यता जिसके अनुभव में श्रागई है-अर्थात् गुरु के भाषण, शास्त्र के वचन और अपने अनुभव में जिसे एक ही वात मिलती है, वही सच्चा सद्गुरु है- सुमुक्षु पुरुषों को ऐसे ही सद्गुरु के शरण में जाना चाहिए ॥३०॥ अद्वैत- निरूपण करने के लिए, तो अगाध वता है; पर विषय-लोलुपता में फँसा