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सृष्टि-वर्णन और मुक्ति चतुष्टय । ही रहती है ॥ २७ ॥ वेद, शास्त्र, आदि सारे सद्मन्य कुल चार मुक्तियां बतलाते हैं-उनमें तीन का नाश हो जाता है और चौथी अविनाश रहती है ॥ २८ ॥ पहिली मुक्ति सालोक्य, दूसरी सामीप्य, तीसरी सारूप्य और चौथी लायुज्य है ॥ २६ ॥ ये चारों मुत्तियां, मनुष्य भगवद्भजन से पात है ॥ ३०॥ ग्पाल, दसवाँ समास-सृष्टि-वर्णन और मुक्ति चतुष्टय । ॥ श्रीराम ॥ आदि ब्रह्म निराकार है-वहां स्फूर्तिरूप से अहंकार उत्पन्न होता है, यह अहंकार पंचभूतों का मूल है, इसका विचार आठवें दशक में किया गया है ॥ १॥ वह अहंकार वायुरूप है। उसके बाद तेज (अग्नि) का स्वरूप है-और उस तेज के आधार से, आप (जल), आवरणरूप, फैला हुआ है ॥ २॥ उस जलावरण के अाधार से शेष यह पृथ्वी धारण किये है । पृथ्वी छप्पन कोटि (योजन ?) के विस्तार में है! ॥३॥ इसको सात समुद्र घेरे हुए हैं। बीच में बहुत बड़ा मेरु पर्वत है । और आठ दि. जो इस पृथ्वी के परिवाररूप हैं, दूर दूर से इसको धेरै हुए हैं ॥४॥ वह बड़ा भारी मेरु पर्वत सोने का है, पृथ्वी को उसका आधार है (?) चौरासी हजार (योजन ) की विस्तृत उसकी चौड़ाई है ॥५॥ उँचाई में तो वह अमर्यादित है । सोलह सहस्र (योजन) तक वह पृथ्वी में घुसा हुआ है.(?) उसके आसपास लोकालोक पर्वत का घेरा है ॥६॥ उसके बाद हिमाचल है, जहां सब पांडव गल गये थे-सिर्फ धर्म (युधिष्ठिर) और तमालनील (कृष्ण ?) आगे गये हैं ॥ ७॥ वहां जाने के लिए मार्ग नहीं है, बीच में, शीतल वायु से सुखी, बड़े बड़े सर्प फैले हुए हैं वे भी पर्वत से जान पड़ते हैं ॥ ८ ॥ उसके बाद बदरिकाश्रम और बदरीनारा- यण हैं। यहां महा तापसी, निर्वाण समय में, देहत्याग के अर्थ जाते हैं ॥ ॥ उसके बाद ये बदरीनाथ-केदारनाथ हैं, जिनके दर्शन सब छोटे - बड़े कर आते हैं; यह सब मेरु पर्वत का विस्तार है । ॥ १०॥ इस मेरू पर्वत की पीठ पर तीन ऊंचे ऊंचे शृंग हैं । उन पर, परिवार सहित, ब्रह्मा, विष्णु और महेश रहते हैं ॥ ११॥ ब्रह्मा काः शृंग मेरु पर्वत. ही की जात का है, विष्णुशृंग मरकत मणि का है और शिवशृंग स्फटिक मणि का बना हुआ है, जिसे कैलास कहते हैं ॥ १२ ॥ विष्णुशृंग का नाम वैकुंठ