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१०० दांसवोध। [ दशक.४ यद्यपि समय पर नहीं उगता तो भी चकोर उसले धानन्य. भाव रखता ही है ॥ १६ ॥ ऐसी मित्रता रखनी चाहिए । विवेक से धैर्य रखना चाहिए और भगवान् की ममता कभी न छोड़नी चाहिये ॥ १७ ॥.भग- चान को सखा मानना चाहिए । इतना ही नहीं, वरन् माता, पिता, गण, गोत, विद्या, लक्ष्मी, धन, वित्त, सब कुछ, परमात्मा ही को जानना चाहिए ॥ १८ ॥ यह तो सभी कहते हैं कि ईश्वर को छोड़ कर हमारे लिए और कोई नहीं है; परन्तु उनकी निष्ठा कुछ वैसी ही नहीं होती! ॥ १६ ॥ अतएव ऐसा न करना चाहिए-(यह तो कपट-मैत्री हुई)-मित्रता करनी है तो फिर सञ्ची ही करनी चाहिए-परमेश्वर को, दृढ़तापूर्वक, सदय में रखना चाहिए ॥ २० ॥ अपनी इच्छा के सम्बन्ध से (इच्छा पूर्ण न होने पर,) ईश्वर पर क्रोध करना सख्यभक्ति का लक्षण नहीं है ॥२१॥ किन्तु ईश्वर की जैसी इच्छा हो वही करना हमें उचित है । इच्छा के कारण भगवान् को क्यों छोड़ना चाहिए ? ॥ २२ ॥ भगवान् की इच्छा के अनुकूल वर्ताव करना चाहिये, और वह जो कुछ करे उसे स्वीकार करना चाहिए, इसले सहज ही वह दया दिखलाता है ॥ २३ ॥ ईश्वर की कृपा के सामने माता की कृपा कोई चीज नहीं। माता तो, विपत्तिकाल पाने पर, बालक को मार भी डालती है ॥२४॥ परन्तु यह कभी देखा या सुना नहीं गया कि ईश्वर ने किसी भक्त को मार डाला हो । शरणागत के लिए ईश्वर वज्र का पिंजरा, अर्थात् प्रबल रक्षक, बन जाता है ॥ २५ ॥ पर- मात्मा भनों का पक्षपाती है, वह पतितों को तारता है और अनाथों का सहकारी बनता है ॥ २६ ॥ भगवान् श्रनाथों की, अनेक संकटों से, रक्षा करता है । उस अन्तर्साक्षी परमात्मा ने गजेन्द्र का भी उद्धार किया था ॥ २७ ॥ ईश्वर कृपा का सागर और करुणा का मेघ है, वह भक्तों को कभी नहीं भूल सकता ॥ २८ ॥ भक्त पर प्रेम रखना परमेश्वर ही जानता है, अतएव उससे सख्यत्व करना चाहिए । ये सब कुटुम्बी बड़े छलिया ई-ये अन्त में काम नहीं आते ॥ २६ ॥ ईश्वर की मित्रता कभी नहीं छू- टती-उसके प्रेम में कभी फर्क नहीं पड़ता और शरणागत की वह कभी उपेक्षा नहीं करता ॥३०॥ अतएव ईश्वर से सख्य करना चाहिए-उससे अपने दुखसुख की बात बतलाना चाहिए-यही श्राठी भक्ति का लक्षण है ॥ ३१ ॥ शास्त्र में परमात्मा और गुरु दोनों बराबर कहे गये हैं; अत- एव परमात्मा की तरह सद्गुरु से भी मित्रता करनी चाहिए ॥ ३२॥