यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समास ८] सख्यभक्ति। वश में कर लेना चाहिए ॥ २॥ परमेश्वर से मित्रता करने का मुख्य उपाय यह है कि जो बातें उसे अच्छी लगती हाँ उन्हींके अनुसार शाचरण करना चाहिए ॥ ३॥ भक्ति, भाव, भजन, अध्यात्म-निरूपण, भगवत्कया, भगवद्गुण-कीर्तन, और प्रेमी भक्तों का गान परमेश्वर को अच्छा लगता है ॥४॥ यही सब बातें हमें भी करना चाहिए, हमें भी यही अच्छा लगना चाहिए; इससे भगवान् का और हमारा मन मिल जा- यगा: और, बस, दोनों की दोस्ती, सहज ही, हो जायगी ॥ ५॥ परमात्मा की मैत्री प्राप्त करने के लिए अपने सारे सुखों को तिलांजलि दे देना.चा- हिए और, अनन्य भाव से, जीव, प्राण तथा शरीर तक उसे अर्पण कर देना चाहिए ॥६॥ अपनी गृहस्थी की झंझट छोड़ कर भगवान् की चिंता करते रहना चाहिए। निरूपण, कीर्तन, कथा, वार्ता, सब, ईश्वर-सम्बन्धी ही करना चाहिएः ॥ ७ ॥ जगदीश्वर से मित्रता करने में यदि अपने इष्ट- मित्र, बन्धुबान्धव, कुटुम्बी, इत्यादि प्रेमियों को भी छोड़ना पड़े तो कोई परवा नहीं-उसे सर्वस्व अर्पण कर देना चाहिए और अन्त में प्राण भी उसीके प्रीत्यर्थ जाना चाहिए ॥ ८॥ हृदय से, भगवान में ऐसा प्रेमचा- हिए कि हमारा सर्वस्व क्यों न चला जाय; परन्तु भगवान् की मित्रता-न छुटे । भगवान् ही हमारा 'प्राण' है और प्राण की रक्षा करना हमारा.क- तव्य है-यही परम.प्रीति का लक्षण है ॥ ॥१०॥ ऐसी परम मित्रता होने पर परमेश्वर को भक्त की चिन्ता लगती है । देखिये न ! लाक्षागृह में जा: लते हुए पांडवों को, विवरद्धारा निकाल कर, उसने कैसी. रक्षा की.! ॥ ११ ॥ मित्ररूप में परमात्मा को अपने पास रखने की कुंजी हमारे ही पास है । जिस प्रकार कि पोली जगह में जैसी हम आवाज करते हैं वैसी ही प्रतिध्वनि पाती है उसी प्रकार, हम यदि परमात्मा पर अनन्य भाव रखते हैं तो वह भी, उसी समय, प्रसन्न हो जाता है और यदि हम उसकी ओर से कुछ पराङ्मुख होते हैं तो वह भी हमारी ओर से प्रसङ्- मुख हो जाता है ॥ १२ ॥१३॥ ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।। जो जैसी भक्ति करता है वैसा ही परमेश्वर भी उसके लिए हो जाता है; अतएव इसकी सारी कुंजी हमारे ही.पास है.॥१४॥ यदि हमारे मन के अनुकूल कोई बात न हो, और इससे ईश्वर की हमारी भक्ति चली जाय तो इसका भी दोष हमारे ही ऊपर है ॥ १५ ॥ देखिये न, मेघ यद्यपि चातक पर प्रसन्न नहीं होता, तौभी चातक अपना निश्चय नहीं छोड़ता तथा चन्द्र