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प्रस्तावना। ५ श्रीराम से मंत्रोपदेश और आज्ञा पाकर वाल समर्थ को परम सन्तोष हुआ। उनकी माता और वन्धु को जब यह हाल मालूम हुआ तब वे अत्यन्त हर्षित हुए। विवाह-प्रसंग । जिस प्रकार माता अपने पुत्र के लिए अनेक उत्साह की इच्छायें रखती है उसी प्रकार वह एक यह भी प्रबल इच्छा रखती है कि लड़के का विवाह शीघ्र होजाना चाहिए। इसी नियम के अनुसार समर्थ को माता राणुवाई भी अपने पुत्र नारायण ( वाल समर्थ ) के विवाह को चिन्ता करने लगों । विवाह की बातें सुन कर नारायणजी बहुत चिढ़ते और नाना प्रकार से विरक्ति व्यक्त करते थे। एक बार विवाह की चर्चा छिड़ने पर वे घर से भाग कर जंगल में चले गये। उनके ज्येष्ठ बन्धु श्रेष्ठ बहुत समझा बुझाकर उन्हें घर ले आये। उनकी यह चाल देख कर माता राणुवाई को बड़ी चिन्ता हुई। श्रेष्ठ अपने कनिष्ठ बन्धु नारायण की विरक्ति देख कर पहले ही समझ गये थे कि यह विवाह नहीं करना चाहता । उन्होंने अपनी माता को बहुत प्रकार से समझाया; पर वे वार वार यह कहती कि नारायण का विवाह अवश्य होना चाहिए। अवसर पाकर एक दिन माता राणुवाई अपने नारायण को एकान्त स्थान में ले गई और मुख पर हाथ फेर कर, बड़े लाड़-प्यार से बोली, “ चेटा" तू मेरा कहना मानता है या नहीं ? " बालक समर्थ ने उत्तर दिया, मातुश्री, इसके लिए क्या पूछना है ? आपका कहना न मानेंगे तो मानेंगे किसका ? कहा भी है, “ न मातुः परं दैवतम्," यह सुन कर माता राणुवाई वोली, " अच्छा तो विवाह की वात चलने पर तू ऐसा पागलपन क्यों करता है ? तुझे मेरी शपथ है; " अन्तरपट " पकड़ने तक तू विवाह के लिए इन्कार न करना।" माता की यह बात सुन कर समर्थ बड़े विचार में पड़े। कुछ देर तक सोच विचार कर उन्होंने उत्तर दिया, “ अच्छा, अन्तरपट पकड़ने तक में इन्कार न करूँगा।" भोली भाली विचारी माता ! समर्थ के दाँव-पेंच उसे कैसे मालूम होते ! राणु- बाई ने समझ लिया कि लड़का विवाह करने के लिए तैयार होगया। उन्होंने जब यह वात अपने बड़े पुत्र श्रेष्ठ से वतलाई तब वे कुछ हँसे और प्रकट में सिर्फ इतना ही कहा, " क्यों न हो।" जव देखा गया कि लड़का विवाह करने के लिए राजी है तव सवकी सम्मति से एक कुलीन और प्राचीन सम्बन्धी कुल की कन्या से विवाह निश्चित किया गया। लग्मतिथि के दिन श्रेष्ठ सारी वरात लेकर, बड़ी धूम धाम के साथ कन्या के पिता के यहाँ पहुँचे। सबके साथ समर्थ भी आनन्दपूर्वक गये । सीमन्तपूजन, पुण्याहवाचन आदि लग्नविधि होते समय श्रेष्ठ और समर्थ, दोनों भाई, आपस में एक दूसरे की ओर देख कर, मन्द मन्द हँसते जाते थे। कुछ समय के बाद अन्तरपट पकड़ने का अवसर आया। ब्राह्मणों ने मंगलाष्टक पढ़ना प्रारम्भ किया। सव ब्राह्मण एक साथ ही " सावधान" घोले। समर्थ ने सोचा कि मैं सदा सर्वदा सावधान रहता हूँ; फिर ये लोग “ सावधान, सावधान" कहते ही हैं; इस-