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दासबोध । [दशक ३ कुंड बना है जिसकी चौड़ाई तो बहुत बड़ी है और मुँह छोटा है-उसमें दुर्गन्धि और वमन भरा है उसको कुंभिपाक कहते हैं-इसमें जो संकट मनुष्य को मिलता है वह श्राधिदैविक ताप है ॥२०॥ तप्त भूमि में तपाते हैं, जलते हुप. खंभे से भेंट कराते हैं और नाना प्रकार के तप्त चिमटा लगाते हैं- इसका नाम है आधिदैविक ताप ॥२१॥ यमदंड की बड़ी बड़ी मारे और यातना की अपार सामग्रियां जो पापी लोग भोगते हैं उन्हें श्राधिदैविक ताप कहते हैं ॥ २२॥ पहले तो पृथ्वी ही पर नाना प्रकार की मारे हैं, उनसे भी कटिन, यम की यातना है। मारते मारते दम नहीं लेने देते हैं, यही आधिदैविक ताप है ॥२३॥ चार दूत चारों ओर से खींचते हैं; झिझकोर डालते हैं, तानते हैं, मारते हैं, खींच लेते हैं, इससे जो कष्ट मिलता है वह आधिदैविक ताप है ॥ २४ ॥ उठते नहीं बनता; वैठते नहीं बनता; रोते नहीं बनता; गिरते नहीं बनता-यातनाओं पर यातनाएं मिलती हैं-यही आधिदैविक ताप है ॥ २५॥ चिल्ला चिल्ला कर रोता है, हुसकता है, धकाधकी से घबड़ाता है, सूख कर पंजर हो जाता है और कटित होता है-इसका नाम है आधिदैविक ॥ २६॥ कर्कश वचन कह कर कर्कश मार देते हैं और भी कई प्रकार की यातना है, जिससे पापी पुरुष कट पाते हैं-इनको आधिदैविक ताप कहते हैं ॥२७॥ पिछले समास में राजदंड बतलाया गया था, उससे भी कठिन यह यमदंड है-यह यातना बहुत भयानक और कठोर है ॥२८॥ आध्यात्मिक और प्राधिभौतिक इन दोनों से भी आधिदैविक विशेप असह्य है, यहां. पर मैंने उसे संक्षेपतया बतला दिया है ॥२६॥ नववाँ समास-मृत्यु-निरूपण । ( मृत्यु से कोई नहीं बचता।) ॥ श्रीराम ॥ यह संसार एक ऐसा तैयार सवार है जो मृत्यु की ओर जा रहा है-काल राह देखता है कि किस घड़ी में इस शरीर को उठा ले जाऊं ॥१॥ सदा काल की संगति रहती है, होनहार की गति नहीं जानी जाती, कर्म के अनुसार. मनुष्य, देश अथवा विदेश में, मृत्यु को प्राप्त होते हैं ॥२॥ संचित • कर्मों का शेष पूरा होने पर, फिर यहां एक क्षण भी माँगे नहीं मिलता- पल भर भी नहीं जाने पाता कि कूच करना पड़ता है ॥३॥ अचानक काल के हरकारे छूटते हैं और मारते हुए मृत्युपंथ में लाते हैं ॥४॥ मृत्यु