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दासबोध। [ दशक ३ वे गृहस्थ परन्तु मैं मूर्ख जानता ही नहीं हूं ॥ ३५॥ आज यदि वह होती तो मुझे कभी न छोड़ती ! वियोग होने पर रोती ! वह मोह ही दूसरा है !! ॥ ३६॥ पुत्र चाहे जैसा दरिद्री और भिखारी हो; पर माता को वह भी प्यारा ही है । उसको दुखित देख कर वह अपने अंतःकरण में व्याकुल होती है ॥ ३७॥ गृहस्थी तो फिर जुड़ सकती है; पर वह माता फिर नहीं मिलती जिससे यह शरीर पैदा हुआ है ॥ ३८ ॥ चाहे वह कर्कशा क्यों न हो, तथापि वह माता ही है । हजारों स्त्री लेकर क्या किया जाय? परन्तु कामविकार में पड़ कर व्यर्थ के लिए फँस गया हूं ! ॥३६॥ इस एक 'काम' के कारण ही अपने स्नेहियों से आपस में लड़ाई कर ली और मित्र लोगों को दुष्ट जान लिया ! ॥ ४० ॥ अतएव, धन्य हैं जो अपने माचाप को प्रसन्न रखते हैं और अपने स्नेहियों से मन- निष्ठुर नहीं करते ॥ ४१ ॥ स्त्री बालकों की संगति तो जन्म-भर बनी है; परन्तु मा-चाप फिर कैसे मिलेंगे? ॥ ४२ ॥ यद्यपि यह सब मैं पहले सुन चुका था; पर उस समय नहीं जान पड़ा और यह मन रति-सुख के दह में डूब गया ! ॥४३॥ ये स्त्री-पुत्र मित्र तो जान पड़ते हैं; पर हैं ये सब बड़े छलिया, सिर्फ सुख के कारण ये मिले हैं। इनके सामने रीते हाथ जाने में बहुत लाज आती है ॥४४॥ अन चाहे जो करें; पर द्रव्य पैदा कर ले जाँय । खाली हाथ जाने से स्वाभाविक ही दुख है " ॥४५॥ इस प्रकार विवंचना करते करते उसका हृदय बहुत दुःखित होता है और वह चिन्ता के महासागर में डूब जाता है! ॥ ४६॥ यह देह अपना होने पर भी पराधीन कर देता है और कुटुम्ब-कबाड़ी, (कुटुम्ब के लिए कटकबाड़ करनेवाला ) वनकर ईश्वर के सामने, बेई- मान बनता है ॥ ४७ ॥ सिर्फ कामना-वश होकर इतना बड़ा जन्म व्यर्थ खो देता है और उम्र खतम होने पर अंन्त में सब छोड़ कर अकेला ही जाता है ॥४८॥ कुछ देर तक वह प्राणी अपने मन में पछताता है, क्षण- भर के लिए उदास होता है और फिर शीघ्र ही मायाजाल में फंस जाता है ॥ ४६॥ कन्या-पुत्रों की याद आती है, मन में खिन्न होता है और कहने लगता है कि मेरे बच्चे मुझ से बिछुड़ गये ! ॥ ५० ॥ पिछले दुःखों की याद कर कर के, जोर जोर से रोना शुरू करता है ॥ ५१॥ अरण्य- रुदन करता है, समझानेवाला कोई नहीं देख पड़ता, इस कारण फिर अपने मन से ही सोचने लगता है ॥ ५२ ॥ " अब क्यों रोवें ? जो प्राप्त हो उसे भोगे !" यह कह कर मन में धीरज धरता है ॥५३॥ इस प्रकार