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दासबोध। [ दशक २ को भूल गया वह एक पढ़तमूर्ख है ॥ १६ ॥ वैभव के अभिमान में आकर जो जीवमात्र को तुच्छ गिनता है और पाखंड-मत का प्रतिपादन करता है वह एक पढ़तमूर्ख है ॥ २०॥ व्युत्पन्न, वीतरागी, ब्रह्मज्ञानी और महायोगी होकर जो जग में भविष्य बतलाने लगे वह एक पड़तमूर्ख है ॥ २१ ॥ किसी वात को सुनकर जो मन में उसके दोष ही की चर्चा . करता हो और दूसरे की भलाई देख कर मत्सर करता हो वह एक पढ़त- सूर्ख है ॥२२॥ जो भक्ति का साधन या भजन नहीं करता और न जिसमें वैराग्य ही है तथा जो किया बिना ब्रह्मज्ञान बतलाता है वह एक पढ़त- सूर्ख है ॥ २३ ॥ जो तीर्थ और क्षेत्र को नहीं मानता है; न वेद मानता है; न शास्त्र मानता है और जो पवित्र कुल में पैदा होकर भी अपवित्र रहता है वह पढतमूर्ख है ॥ २४ ॥ जो आदर देख कर प्रीति करता है, जिसकी कीर्ति नहीं है उसकी भी जो प्रशंसा करता है और तुरन्त ही उसका अनादर करके उसकी निन्दा भी करता है वह भी एक पढतमूर्ख है ॥ २५ ॥ पीछे कुछ और है; आगे कुछ और है-ऐसा जिसका नियम है, तथा जो बोलता कुछ और है; करता कुछ और है वह एक पढ़तमूर्ख है ॥ २६ ॥ प्रपंच-विषयों में जो तत्पर है और परमार्थ में जिसकी भक्ति नहीं है; अर्थात् जानबूझ कर जो अंधकार में पड़ता है, वह एक पढ़तमूर्ख है ॥ २७ ॥ जो दूसरों को खुश करने के लिए, यथार्थ वचन छोड़ कर, और का और ही बोलता है और जो पराधीन होकर जीता है वह एक पढ़त- मूर्ख है ॥ २८ ॥ ऊपर ऊपर से सोंग बनाता है और जो न करना चाहिए वही करता है अथवा जो मार्ग भूल कर, फिर भी हठ करता है वह एक पढ़तमूर्ख है ॥ २६ ॥ रात दिन अच्छे अच्छे ग्रन्थों का श्रवण करता है; परन्तु अपने अवगुण नहीं छोड़ता और जो स्वयं अपना हित नहीं जानता वह एक पढ़तमूर्ख है ॥ ३० ॥ निरूपण में भले भले श्रोता लोग आकर वैठे हैं, उनके दोष देख कर जो कहता है वह एक पढ़तसूर्ख है ॥ ३१ ॥ शिष्य अनधिकारी है और वह अवज्ञा भी करता है, फिर भी जो कोई उसकी आशा रखता है वह पढ़तमूर्ख है ॥ ३२॥ ग्रन्थ सुनते समय यदि किसीसे कुछ दोष हो जाय और उस पर क्रोध से जो चिढ़ने लगे वह पढ़तमूर्ख है ॥ ३३ ॥ वैभव के अहंकार में आकर जो सद्गुरु की उपेक्षा करता है और गुरु परम्परा को छिपाता है वह एक पढ़तमूर्ख है ॥ ३४ ॥ ज्ञानोपदेश करके जो अपना स्वार्थ निकालता हो, कृपण की तरह जो अर्थ-संचय करता हो और जो द्रव्य के लिए परमार्थ का उपयोग करता हो वह एक पढ़तमूर्ख है ।। ३५ ॥. बिना स्वयं बर्ताव किये दूसरों को जो