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श्रीसमर्थ रामदासस्वामी। प्रस्तावना। भारत के सनातन-धर्मावलम्बियों का इस सिद्धान्त पर पूर्ण विश्वास है कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है तव तव साधुजनों की रक्षा और दुष्टजनों का नाश करके, धर्म की स्थापना करने के लिए, ईश्वर का अवतार होता है । इसी विश्वास के अनुसार हमारे धर्म में रामकृष्णादि विष्णु के मुख्य दस अवतार माने गये हैं। महाराष्ट्र प्रान्त में श्रीरामदासस्वामी को हनुमानजी का अवतार मानते हैं । इसके लिए भविष्यपुराण में प्रमाणभूत एक श्लोक भी कहा जाता है:- कृते तु मारुताख्याश्च त्रेतायां पवनात्मजः। द्वापरे भीमसंज्ञश्च रामदासः कलौयुगे ॥ इस श्लोक में यह बताया गया है कि, हनुमानजी के कौन कौन अवतार किस किस युग में होंगे। कृतयुग या सतयुग में हनुमान् का जो अवतार होगा उसको " मारुत कहेंगे, त्रेतायुग में “ पवनात्मज" द्वापर में “ भीम” और कलियुग में “ रामदास" कहेंगे । श्रीरामदासखामी ने भी आपने विषय में जो थोड़ा बहुत लिखा है उससे भी कुछ ऐसी ही ध्वनि निकलती है। अस्तु । इसमें तो सन्देह ही नहीं कि, श्रीरामदासस्वामी महान् भगवद्भक्त, साधु, कवि और राजनीतिज्ञ थे। उनका चरित और उनको लीला अनुपम है । जिन्होंने यवन-पद-दलित महाराष्ट्रभूमि में, अपनी अप्रतिम निस्पृहता और पारमार्थिक शिक्षा से, स्वधर्म और स्वराज्य की स्थापना में सहायता करके “ समर्थ" पदवी प्राप्त की । उनका पूरा परिचय, इस अल्प सारांशरूप लेख में देना असम्भव है । तथापि यथाशक्ति इस चरित्र के विशद करने का प्रयत्न किया जायगा । वंशपरंपरा और जन्म । दक्षिण देश में जिस समय हिन्दू राजाओं ने अपना राज्य स्थापित किया उस समय वे अन्य प्रान्त के लोगों को, अपने राज्य में बसने के लिए, जमीन और द्रव्य देकर लाते थे । वेदर प्रान्त ( निजामशाही ) से बहुत लोग गोदावरी नदी के किनारे जाकर वसे । उन लोगों में कृष्णाजीपन्त ठोसर नामक एक देशस्थ ( महाराष्ट्र ब्राह्मणों की एक श्रेणी ) ब्राह्मण थे । वे शाके ८८४ ( सन् ९६२ ई.) में उत्तर गोदावरी के तीर, बीड़ प्रान्त में, हिवरा नामक ग्राम में, आकर कुटुम्ब-सहित रहने लगे। उन्होंने वीड़ प्रान्त में बहुत से गांव वसाये । उनके चार पुत्र थे । ज्येष्ठ पुत्र का नाम दशरथपन्त था। उन्होंने अपने पिता की ।