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रजोगुण-निरूपण । होता ही बह रजोगुणी है ॥ २३ ॥ हँसी-ठट्टा और विनोद में जिसका मन लगा रहता हो, जो शृंगारिक गीत गाता हो और राग-रंग तथा तान-मान में जिलका चित्त रवा हो वह रजोगुणी है ॥ २४ ॥ जो चुगली चवाव और निन्दा करके विवाद खड़ा करता हो, सर्वदा हास्य और विनोद करता रहता हो बह रजोगुणी है ॥ २५ ॥ जो बड़ा भारी आलसी हो और जो मनोरंजन के अनेक खेलों या उपभोगों का गड़बड़ मचाये रहता को बह रजोगुणी है ।। २६ ॥ कलावंत, बहुरूपी और नटी के खेल देखने में तत्पर दो नया नाना प्रकार के खेलों में जो दान देता हो वह रजोगुणी है ।। २७ ।। मादक द्रव्यों पर जिसकी बहुत प्रीति हो और जो चित्त में मथुन की याद करता हो या जिसे नीच की संगति प्यारी हो वह रजो- गुणी है ॥ २८ ॥ चोर-विद्या की स्फूर्ति जिसके जी में उठती हो, दूसरे की हीनता बोलना जिसे पसन्द हो और नित्य-नियम से जिसका मन हटता हो वह रजोगुणी है ॥ २६ ॥ परमात्मा के लिए जिसे लज्जा पाती हो; परन्तु पेट के लिए जो कष्ट सहता हो और प्रपंच में जो प्रेम रखता हो वह रजोगुणी है ॥ ३० ॥ जिसे मीठा भोजन करने की बहुत लालसा हो, जो बड़े अादर से पिण्डपोपण, अर्थात् शरीर का पोपण, करता हो, जिससे की उपवास न हो सकता हो वह रजोगुणी है ॥ ३१ ॥ जिसे शृंगा- रिक बातें अच्छी लगती हो; भक्ति वैराग्य प्यारा न हो और जिसका मन . कला-सौंदर्य में लगा हो वह रजोगुणी है ।। ३२ ॥ परमात्मा को न जान कर जो सार लांसारिक पदार्थों से प्रेम रखता हो और जानबूझ कर अपनेको जन्ममृत्यु के चक्कर डालता हो वह रजोगुणी है ॥ ३३ ॥ अस्तु । यह रजोगुण, मोह के कारण, जन्ममरण दिलाता है। प्रपंची रजोगुण को शवल समझो-यही दारुण दुःख भोगाता है ॥ ३४ ।। अब, यह रजोगुण जब तक नहीं छूटता तब तक सांसारिक विषय भी नहीं छूट सकते-प्रपंच में वासना लगी रहती है; अतएव इसका उपाय क्या है? ॥३५॥ इसका उपाय केवल भगवद्भक्ति है। यदि विरक्ति न हो सके तो यथाशति परमात्मा का भजन जरूर करना चाहिये ॥३६॥ तन, मन, वचन, पत्र, पुष्प, फल, जल, जो कुछ बने-हृदय से ईश्वर को अर्पण करके जीवन सार्थक करना चाहिए ।। ३७ ।। यथाशक्ति दान-पुण्य करना चाहिए, भग-. वान् में अनन्य भक्ति रखना चाहिए और सुख दुःख पड़ने पर ईश्वर ही का चिन्तन करना चाहिए ॥ ३८ ॥ आदि और अन्त में एक ईश्वर ही है, साया यह वीच में ही लगी है, अतएव ईश्वर में ही पूर्ण भाव रखना चाहिए ॥३६॥