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समास ३] कुविद्या लक्षण। २७ न तोड़ा, अनाचार न मचायो ॥३४॥ हरिकथा न छोड़ो, निरूपण न तोड़ो, और प्रपंचबल से परमार्थ को न मोड़ो ॥३५॥ देवता का मानगन न छोड़ो, स्वधर्म का त्याग न करो और बिना विचारे हठ से मनमाना काम न करो ॥३६॥ निदरता न धरो, जीवहत्या न करो, बादल उमड़ा हुआ देख कर बाहर न जायो, अथवा बुरे समय में न जाओ ॥ ३७ ॥ सभा देख कर पचड़ानो मत, समय आ पड़ने पर उत्तर देने में मत चूको, धिक्कारने से अपने धैर्य को न डिगने दो ॥ ३८ ॥ विना गुरु किये न रहो, नीच जाति का गुरु न करो, वैभव से भूल कर जीवन को शाश्वत, अर्थात् नित्य, न सानो ॥ ३६॥ सत्यमार्ग न छोड़ो, असत्य पथ पर न जाओ, और असत्य का अभिमान कभी न करी ॥ ४०॥ अपकीर्ति का त्याग करना चाहिये, सत्कीर्ति बढ़ाना चाहिये, और, विवेकपूर्वक, सत्य का मार्ग, दृढ़ता से पकड़ना चाहिये ॥४१॥ जो मनुष्य ये उत्तम गुण नहीं लेते वे कुलक्षणी हैं। उनके लक्षण अगले समास में सुनो ॥ ४२ ॥ तीसरा समास-कुविद्या-लक्षण । ॥ श्रीराम ॥ अब कुविद्या के लक्षण सुनो । त्याग करने के अर्थ, जो अति हीन कुल- क्षरण हैं, वे कहे हैं। इनके सुनने से त्याग बनता ॥१॥ सुनो, आगे के लक्षणों से मालूम हो जायगा कि कुविद्यावान् प्राणी ने संसार में जन्म ले कर हानि ही हानि की ॥२॥ कुविद्यावान् प्राणी कठिन निरूपण में घबड़ा जाता है। क्योंकि वह अवगुणों का ढेर है ॥ ३ ॥ महात्मा श्रीकृष्ण गीता में ऐसे राक्षसी गुणों का वर्णन करते हैं:- दंभो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ॥ अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥ १ ॥ काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोभ, दंभ, तिरस्कार, गर्व, अकड़, अहंकार, द्वेष, विपाद, विकल्प, आशा, ममता, तृष्णा, कल्पना, चिन्ता, अहन्ता, कामना, भावना, ईर्ष्या, अविद्या, ईष्णा, वासना, अतृप्ति, आसक्ति, इच्छा, वांच्छा, चिकित्सा, निन्दा, अनीति, कृतघ्नता, सदा मस्ती, ज्ञातापन का अभिमान, अवज्ञा, विपत्ति, श्रापदा, दुर्वृत्ति, दुर्वासना, स्पर्धा, खटपट, चटपटी, एक प्रकार की झटपट, बकवाद, सदा खटखट मचाये रहना, २