पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/६२

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आवै बास सुबासा ॥ जाति भी ओछी करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा । नीचै से प्रभु उफंच कियो है, कह रैदास चमारा ।

हरि बिन नहिं कोई पतित पावन, आनहिं ध्यावे रे । हम अपूज्य, पूज्य भये हरि ते, नाम अनूपम गावै रे । अष्टादस ब्याकरन बखानैं, तीनि काल षट जीता रे । प्रेम भगति अंतर गति नाहीं, ता ते धनुक नीका रे । ता ते भलो स्वान को सत्रू, हरि चरनन चित लावै रे । मूआ मुक्त बैकुंठ बास, जिवतयहां जस पावै रे ॥ हम अपराधी नीच घर जनमे, कुटुंब लोग करै हांसी रे । कह रैदास राम जपु रसना, कटै जनम की फांसी रे ॥

तुम चंदन हम इरंड बापुरे संगि तुमारे बासा । नीच रुख ते ऊंच भए हैं गंध सुगंध निवासा || माधउ सतसंगति सरनि तुम्हारी । हम अउगुन तुम्ह उपकारी ॥ तुम मखतूल सुपेद सपीअल हम बपुरे जस कीरा । सतसंगति मिलि रहीऐ माधउ जैसे मधुप मखीरा ॥ जाती ओछा पाती ओछा ओछा जनम हमारा । राजा राम की सेव न कीनी कहि रविदास चमारा ॥ धर्मपाल मैनी ने रविदास की भक्ति के सार पर विचार करते हुए लिखा कि “रैदास की विचारधारा में मूल स्वर ब्रह्मा का है, तो उसका स्वर एक छोर पर उनकी अपनी हीनता से जुड़ा हुआ है, जिसके केन्द्र में उनकी जाति है। वास्तव में रैदास की मूल समस्या ब्रह्मा के साक्षात्कार की न थी, उनकी मूल समस्या तो अपनी हीनताओं से मुक्ति पाकर आत्म-उन्नयन की थी। इसलिए वे निरन्तर ब्रह्मा की चर्चा के साथ अपनी जातिगत हीनता को जोड़ देते हैं। रैदास की दृष्टि में भगवद्भक्ति ही ऐसा एक मात्र साधन था, जिसके आधार पर वे अपने को समुन्नत अनुभव कर सकते थे। इसीलिए रैदास आत्म-उद्धार के लिए व्याकुल हैं। अपने प्रारंभिक पदों संत रविदास : भक्ति बनाम मुक्ति / 65