पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/५८

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इसी बात को जोर देकर दुबारा फिर कहा गया है- श्रेयान स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात्स्नुष्ठिातात् । स्वभाव नियतं कर्म कुर्वान्नाप्नोति किल्विषम् ॥ वर्ण धर्म के प्रति इस कट्टर दृष्टि की तुलना गीता के इस कथन से की जाए जिसमें भगवान् यह कहते हैं कि जो भी भक्त चाहे जिस रूप में भी देवता की अर्चना करना चाहता है मैं उस भक्त की उस देवता के प्रति श्रद्धा अचल बनाता हूं; या यो यां तनु भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति । तस्त तस्पाचलां श्रद्धां तामेव विदधाभ्यहम् ॥ (7.21) तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जहां एक ओर देवता के स्वरूप एवं अर्चना पद्धति आदि के मामले में पूरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता दी जा रही है वहीं सामाजिक कार्यक्षेत्र में बलपूर्वक यह कहा जा रहा है मनुष्य को स्वभाव से अर्थात् जन्म से ही नियत कर्म को ही करना चाहिए, दूसरे का वर्ण धर्म उसके व्यक्तिगत गुणों पर नहीं अपितु जन्म पर ही आधारित समझा गया है। इसी मान्यता के अनुसार गीता में शूद्रों एवं स्त्रियों को पाप योनि समझा गया । यह एक दिलचस्प सवाल है कि वैयक्तिक आधार और सामाजिक आचार के प्रति अपनाए गए रवैयों में इतनी जबर्दस्त विसंगति क्यों है। आगे चलकर हिन्दू धर्म इसी विशेषता द्वारा परिभाषित हुआ।' 16 भक्ति के माध्यम से ब्राह्मणवादी विचारधारा ने आत्मसातीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया । भक्ति के माध्यम से विभिन्न सम्प्रदायों-मतों को अपने को आत्मसात करने या फिर उनमें मौजूद ब्राह्मणवाद विरोधी तत्वों को शिथिल कर देने तथा समुदाय विशेष की संस्कृति की स्वतंत्र पहचान समाप्त करके अपना वर्चस्व बनाए रखा है। भक्ति की विचारधारा ने निम्न वर्गों तथा जनजातियों में अपनी बैठ बनाने के लिए उनकी सामाजिक प्रथाओं, विश्वासों- मान्यताओं में ब्राह्मणवादी मान्यताएं इस तरह ढूंस दी कि उनका मूल चरित्र ही उलट दिया । 'नारायण' जैसे अवैदिक देवताओं को विष्णु के साथ जोड़कर तथा वराह व नरसिंह आदि को अवतार घोषित करके अफने खोल में समा लिया । " शिव का ब्राह्मणवादीकरण नहीं किया जा सका, बल्कि शिव पर अनेक ब्राह्मणिक तरीके आरोपित किये गए । लगता है कि शिव के उपासकों को ब्राह्मणिक घेरे में नहीं लाया जा सका । वे वेद- विरोधी रुख बनाए रहे। यहां सांख्य था, योग था। इसलिए शिव अवतारों की श्रेणी में नहीं है। वे समता का स्थान रखते हैं, विष्णु के साथ। 'वर्णमूलक व पितृसत्तात्मक' मूल्यों का प्रसार करने के लिए भक्ति का माध्यम लिया गया। वर्णधर्म व पितृसत्तात्मकता से पीड़ित सामाजिक वर्गों की वास्तविक मुक्ति की बजाए काल्पनिक मुक्ति का सिद्धांत गढ़ा और वर्ण-धर्म का पालन ही मुक्ति का पर्याय बन गया। शूद्र के लिए द्विजों की सेवा ही मुक्ति के आदर्श मार्ग के तौर पर प्रस्तुत कर दिया । संत रविदास : भक्ति बनाम मुक्ति / 61