दृद्धिय अफोफा का सत्याग्रह
२४४
नहीं, प्रेम बढ़े। परमात्मा से मरी यही प्राथेना है।
'
“मुफे मार खानी पढ़ी। और भी खानो'पढ़े तो भी मैं वो
यही सलाद दूँगाकिसव मिलकर यही प्रदत्त कोनिए कि इसमें
से अधिकाँश मनुष्य अपनी दसों अंगुलियों की छाप दें। कौम का और गरीबों का इसीमें मत्षा है,उनकी रक्ता इमीसे दोगी। _
“अगर हम सच्चे सत्याम्रही होंगे तोमार की या भविष्य में
विश्वामधात होने की आशका से जरा भी नहीं दरेंगे।
"जो दूस अँगुलियोंवाली धात पर ही अडे हुए हैं.बे गलती
कर रहेहैं।
“में परमात्मा से प्रार्थना करता हूँऔर माँगदा हैँकि वह
कौम का मल करे, उसे सत्य मांगे पर ले चले, और हिन्दू तथा
मुसलमानों को मेरेखून से एक करें ।”
मि० चमनी लौटे |बढ़ी मुश्किज्ञ से मैंने अपनी अ्रेंगुलियों.,
की छाप दी |उम सयय मैंने उत्की आँलों में आँसू देखेउनके ।
खिल्लाफ तो मुझे बडे सख्त लेख लिखने पढ़े थे। पर उस समय मेरी आँद्ों केसामने इस बात का चित्र खड़ा द्वोगया कि मौका
पढ़ने पर मलुष्य-हृदय कितना कोमल दो सकता है| पाठक खर्य सोच सकते हैंकि इस दिधि में बहुत समय नहीं क्गा। छिए भी मि० डोक और उनकी धर्मपत्नों बढ़े श्रधोर रहे थे कि में शीघ्र शान्त और स्वस्थ हो ज्ञाई ? चोट के बाद मेरी मानसिक
प्रवृत्ति के कारण उन्हेंदुःख दो रहा था। उन्हेंयह भय था कि फहीं मेरे स्वास्थ्य परइसका विपरीत असर न हो । इसलिए
संकेत द्वारा तथा अन्य युक्ति सेवे पतंग के पास से सचको दूर _ लेगये और मुझे लिखने बगैर कीमनाही कर दी। मैंने चाही”
( और उसे क्िख कर प्रकट क्रिया )- कि सोने से पहले और
जित्त शादि केलिए उनकी लड़की ओलिव, जो उस समय बाजिका