पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/८६

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- तुलती का सूफरखेंत ७५ लगाया जाय तो कहना होगा कि इसके पहले पुनि गुरु' का विधान भी होना ही था, किन्तु प्रतीत होता है कि जानबूझ कर तुलसी ने इसे गोल कर दिया है, और 'औरौ जे हरिभगत सुजाना' में सवका समाहार कर लिया है। हमारी समझ में तुलसी का अभिप्राय यह है कि उक्त कथा को सुनने का अवसर तो पहले भी इसी कहाहिं सुनहि समुझाई विधि नाना में मिल गया था, पर 'अति अचेत होने के कारण उस समय वैसा कुछ समझ में न आ सका जैसा कुछ कि उसका अर्थ अत्रं समझ में आ सकता है। किन्तु 'वालपन' का संस्कार व्यर्थ नहीं गया। प्रौढ़ होने पर ' उसके मर्म की जिज्ञासा हुई और फलतः फिर 'सूकरखेत में गुरु जी से सुनने का संकल्प हुआ। किन्तु जैसा कि चाहिए उसका अर्थ अब भी समझ में ना सका । कारण. 'श्रोता' की कमी थी। भला जो कथा 'ज्ञाननिधि' श्रोता के लिए बनी हो उसको कोई मोहमस्त प्राणी कैसे समझ सकता है ? फिर भी यदि कोई वक्ता किसी को कुछ समझाने पर तुल जाय तो फलतः श्रोता की समझ में कुछ आ ही जाता है। सुनिए न,'तुलसी का ही वचन है- - श्रीता वकता ज्ञाननिधि कथा राम के गूढ़ । फिमि समुझे मैं जीव नई फलि मल असित बिमूढ ॥३०॥ तदपि कही गुर वारहि बारा ! समुशि परी कछु मति अनुसारा । और जव जहां तक 'मति' की गति है वहां तक कथा का बोध हो गया तब उसको 'सरल' करने की सूझी । फलतः निश्चय हुआ- भापाबंध फरवि मैं सोई । मोरे मन प्रबोध जेहि होई। जस कछु बुधि विवेक बल मेरे । तस कहिहौं हिय हरिर्फे प्रेरें।