पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/६५

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वार्ता में तुलसीदास ४६ ने श्रीरामचन्द्र जी की तथा श्रीजानकी जी को स्वरूप धरि के दर्शन दिए । तब तुलसीदास ने साष्टांग दंडवत की। [वही पृष्ठ, ५८०] 'वार्ता' में तुलसीदास की चाहे जैसी गति बने पर बनाई जा रही है उसी तुलसीदास की जो उक्त 'श्रीगुसांई जी' से मान-मर्यादा में उस समय भी कहीं अधिक समझा जाता वार्ता के तुलसीदास जिस समय कि 'वार्ता के धनी जीवित थे। वार्ता' को वर्तमान रूप कव मिला और उसका सच्चा 'वक्ता' या 'कर्ता' कौन है, आदि प्रश्नों से यहाँ कोई प्रयोजन नहीं, वह सर्वथा प्रामाणिक वा अप्रामाणिक है, यह भी प्रसंग के बाहर की बात है। वह जो कुछ और जैसी भी है उसके आधार पर हमें कहना यही है कि उसके तुलसीदास 'काशी' के तुलसीदास हैं। 'अवध' अथवा 'अयोध्या के प्रति उनकी ममता अवश्य है, पर कभी वहाँ जाकर वे रहे भी, ऐसा नहीं भासता। किसी 'सोरों से भी कभी उनका कोई लगाव था, इसकी तो गंध भी वहाँ नहीं मिलती । हाँ, 'सोरों' का नाम अवश्य 'वात' में आ गया है 'सोरों के रूप में ही कुछ 'सूकरखेत' के रूप में नहीं। परंतु उस वार्ता से तुलसी का कोई लगाव नहीं और नहीं है कोई संबंध उससे उनके छोटे भाई 'नंद' का भी । निदान विवश होकर कहना पड़ता है कि 'सोरों-सामग्री' 'वार्ता के प्रति- कुल आचरण करती है और 'पूरव' का अपूर्व अर्थ लगा अपनी आशा पर पानी फेरती है। हाँ, प्रसंगवश यह भी जान रखिए कि 'वार्ता' की दृष्टि में 'राजापुर' नहीं। क्यों ? महाप्रभु वल्लभाचार्य जी 'अडेल' में रहते थे और श्रीगुसांईजी' महाराज भी पहले प्रायः वहीं विराजते ४