पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/३३

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. . तुलसी की जीवन-भूमि काल तोपची तुपक महि, दारू अनय फराल । पाप पलीता कठिन गुरु, गोला पुहुमी पाल ||५१५|| [वही] फलतः उन्हें भी इसका फल भोगना पड़ा । सो कैसे ? प्रसंग अयोध्या का त्याग अभी आने को ही है। कृपा कर यहाँ सुनिए यह कि यह कहा क्या जा रहा है । सुनिए न- जब यहि बिधि विपुल विताइ काल । कछु दिष्टि परयो कलि को कुचाल । हिंसादिक बाधक भक्त रीति । सुचि मुक्ति पुरी विच लखि अनीति ।। तब जगनायक सो विनै ठानि । यह देख न जात दयानिधानि ।। भई आज्ञा यह जुग धर्म नीति । यहि विधि प्रपंच की इहै रीति ॥ जो सहि न जात यह कलि कुपास | निज कासी मो कीजै निवास ।। कासी सुखरासी तिहू . काल । जह रछक श्री शंकर दयाल | जो काल कर्म गति सकत: रोफि । जमदूत धूत कोउ सकै न टोकि ॥ सुनि आए कासी हरन सोक । भये अति प्रसंन्य सोभा बिलोकि ।। [चरित्र, पृष्ठ २७-८] चरित्र के इस कथन में इतिहास भले ही न हो पर है न स्वयं तुलसी की साली इसी के पक्ष में । देखिए न, क्यों तुलसी समझा रहे हैं अपने आप को इस भाषा में- मुक्ति जन्म महिं जानि ज्ञान खानि अघ हानिकर । ,जहँ वस संमु भवानि सो फासी सेइअ कस न । जरत सफल सुंर वृद विपम गरल जेहिं पान किया। तेहि न भजसि. मन मंद को कृपाल संकर सरिस ॥ [ रामचरितमानस, चतुर्थ सोपान, आरंभ ]

रामचरितमानस के चतुर्थ सोपान में इस समाधान की

आवश्यकता क्यों पड़ी ? हम टीकाकारों की ऊहा की होड़ में