पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२६९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६६ तुलसी की जीवन-भूमि किया जा चुका है । मुहम्मदशाह की 'अवध' में टकसाल खुली तो उसके 'दाम' पर 'अवध' की छाप पर्याप्त न समझी गई। उसके साथ उसका मुगली नाम 'अखतरनगर' भी जोड़ दिया गया । परंतु आलमगीर की कड़ाई का फल उसकी संतान को भोगना पड़ा। मुगल काल-कलेवा बन गया। नवाब वजीर' भी पहले तो 'अयोध्या' को दराने में तत्पर रहे पर घाद में हवा का रुख देख कर अयोध्या से हट गए । पहले फैजाबाद को आवाद किया और फिर लखनऊ में जा रहे । अँगरेजों के देखते-देखते अयोध्या की जो विभूति जगी उसने उनको सतर्क कर दिया और उन्होंने अपने ढंग से इस त्रयी का ह्रास किया । राम-कृपा अथवा अपने संकल्प के आधार पर हम स्वतंत्र हो कुछ करने धरने की सोच रहे हैं । परंतु खेद होता है यह देखकर कि हमारे राजमार्ग में कोई विशेष परि- वर्तन नहीं । हमारी आदत वही और अदब वही, बस नाम भर • कुछ बदल गया है । तो भी जो हुआ है उसको दृष्टि में रखते हुए कहना पड़ता है कि अब कुछ होकर रहेगा। सरकार अपनी, पर क्या साहित्य भी अपना है ? आशा है 'तुलसी की जीवन-भूमि' में आपको जो तत्त्व हाथ लगा होगा उससे आपका सत्त्व पुष्ट होगा और आप तुलसी के सहारे उनके उस चरित को भी भली भाँति आँक सकेंगे जिसका लक्ष्य है राम-चरित, कह लें राम-राज्य भी। 'राम-धाम' के विषय में अभी कहना ही क्या ! अभी तो तुलसी की खोज कहीं और हो रही है न ? परंतु उसके विपय में तुलसी का प्रमाण क्या ? 'मुगल' मौन! अँगरेज मुखर !! अपना आप जानें । पर मानी तो 'मुखर' की ही जा रही है न ? क्यों ?