पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२६६

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तुलसी की खोज २६३. हाँ, तो बस अब एक ही बात और कहने की शेष रही। पता नहीं 'खनवा' की रणभूमि में हिंदू-मुंड की मीनार बना 'गाजी' धननेवाला बादशाह वावर अपनी जीवनी चावर का मौन में उसका उल्लेख क्यों नहीं करता जिसको आज भी 'जन्मस्थान की 'बावरी मसजिद' कहते हैं । अपनी 'आत्मकथा' में वह मौन क्या है, सारा मुगल: इतिहास ही इसके विषय में मौन है। उसमें कहीं न तो तुलसी का पता है और न इस मसजिद के इतिहास का उल्लेख । इतना ही नहीं वानर से कहीं हम यह भी नहीं सुन पाते हैं कि 'सर' और 'घाघरा' के संगम पर अयोध्या से दो-तीन कोस पर रह कर उसने इसलाम का काम क्या किया और फिर अयोध्या से सात-आठ फोस ऊपर जाकर अपने शिकारी दल के साथ 'जमीन शिकारगाह' में क्या क्या किया । क्या इस अवसर पर उसका मौन रह जाना संभव है ?.२ अपरैल १५२८.के पश्चात् फिर हम १८ सितंबर १५२८ को अयोध्य से दूर उसकी लेखनी का चमत्कार पाते हैं । क्यों ? कारण कुछ तो अवश्य होगा ही। तो क्या इसे हम दीर्घ- दर्शी अकवर की नीति का परिणाम समझे जो उक्त अंश का वहाँ से लोप हो गया ? अनुमान से काम लेना ठीक नहीं; परंतु सच्ची सूचना के अभाव में खुलकर इतना क्यों न कह दिया जाय कि यह 'शिकारगाह' कहीं 'सूकरखेत' के पास तो नहीं है जो वावर उधर ही प्रस्थान करता है ? स्थिति कुछ भी हो, परिस्थिति पुकार कर कहती है कि राम • धाम के विना तुलसी की गति नहीं। तुलसी का अध्ययन अभी हुआ ही कहाँ जो हम उसकी सारी बातों को आँख मूंद कर.. मान लें ? और अपनी स्वतंत्र शोध का परिचय क्यों न दें? अस्तु । 'मुगल' और उसके इतिहास के सहारे यह तो समझा .