पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२६

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६ श्री गोसाई-चरित्र का महत्त्व अंगीकार न. चन कछु देखो, अरु निज जोग्य न भादर लेखो ||१|| मन अनुमानि पूछ तब वाता, सूरदास प्रभाव किमि. ताता ||२|| कह प्रभु सूर विदित जग जाना, परम भागवत ज्ञान निधाना !! तब कहि मम पितु निफट नेवासी, चौदह रतन ज्ञान गुन रासी ॥४॥ एक ते एक प्रवीन उनागर, सब पंडित गुन गुन सागर ॥५॥ टोडर मल अरु बीरबल, खान खान गुन पूर। नरहरि अहमद आदि दे, भरु गुन सागर सूर ॥१॥ को गोसाई सुनु नरनाहा, ये चौदह जो रतन सराहा ॥ १ ॥ रतन एक सूरहि को जानो, और सबंन कह सीप बखानो ॥२॥ महिमा सुनी. सूर की जयही, औसर पाई कह्यो पुनि तबही ॥ ३ ॥ ते तो तिनहिं अनुग्रह करते, हम ग्रह भाइ चरन नित धरते ॥ ४॥ यहि मिस जनु निन हेत जनायो, सो हौ इहाँ नआदर पायौ ॥५॥ कयौ गोसाई सुनहु तुम, जात जो तव ग्रह सूर । ताते. ते नहि घटि गये, नैनन नहिं विधु दूर ॥ १ ॥ [ वही, पृष्ठ १२२] सूर कभी अकवरी दरवार के रत्ल थे दरबार से दूर क्यों ऐसा इससे भासता है। परंतु तुलसी सदा उससे दूर रहे यह भी यहीं प्रत्यक्ष हो जाता है। आगे का कथन है- याको भेद सुनहु तुम सोई, यामे. पच्छपात नहिं कोई । सोम. बंस के सूर उपासक, ताते ते निन दृष्टि प्रकासक । जोरे दिष्टि चंद सो जोई, जोति वृद्धि ताकी पर होई । सबै ठौर चितवै चितु. 'लावै जहाँ जाइ तह द्विष्टि देखावै । हम तो. भानुवंस के . चेरे, और न सूझै तिन तन हेरे। तेज राति.पुनि चितवै जोई, फिरि न द्रिष्टि तर आवत कोई । -