पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२२९

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२२६ तुलसी की जीवन-भूमि स्थात् इसी के समाधान में एक आधुनिक डाक्टर कहते हैं- कवि के रोग में और बनारसीदास के रोग में कितना साम्य है, यह आसानी से देखा जा सकता है । अंतर दोनों के निदान और उपचार में है। यदि प्रार्थनाओं आदि पर विशेष विश्वास न करके बनारसीदास की भाँति वह भी दवा-दारू पर उतारू हो जाता, तो संभवतः उसे इतना कष्ट न उठाना पड़ता जितना उसे अन्यथा उठाना पड़ा। [तुलसीदास, तृ० सं०, पृष्ठ १८८] 'तुलसीदास' और 'बनारसीदास' एक ही समय के प्राणी थे। दवा-दारू अतः बनारसीदास की भी सुन लीजिए। आप ही कहते हैं अपनी 'अर्द्धकथा' में- भास एक जब भयो वितीत । पौप मास सित पप रितु सीत । पूरत्र कर्म उदै संजोग । अकस्मात बात को रोग । भयो बनारसि दास तनु कुष्ट रूप सरवंग। हाड़ हाइ उपजी विथा केस रोम ध्रुव भंग ।। विस्फोटक अगनित भए हस्त चरण चौरंग । कोई नर सीवा ससुर भोजन करे न संग ।। ऐसी असुभ दसा भई निकट न भावे कोय । सासू और विवाहिता करहिं सेव तिय दोय ।। जल भोजन की लेहिं सुधि देहिं अन्न सुष माहिं । औषध नावं देह में नाक ऍदि उठि नाहिं !! इस अवसर ही नापत कोय । औषध पुरी खवावे सोय । चने अलौने भोजन देय । पैसा टका फछू नहिं लेय । च्यार मास बीवे इस भाँति । तब कछु भई विथा उपसांति । मास दोय औरो चल गए। तब वानारसि नीके भए । [ तुलसीदास, तृ० सं० पृष्ठ १८७-८ में उद्धृत ]