पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२२२

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शाही शह: . तुलसी की जीवन-यात्रा २१६ 'प्रसिद्ध कवि के. उक्त कथन.से उस समय की व्यापक परि- स्थिति का कुछ परिचय हो गया तो देखें यह कि उसी शाही कोप के प्रताप से- काशी हूमों जनहि पुनि, लागी होन कुचाल । दंडी जाइ कह्यौ तबै, हाकिम. सौ . ततकाल । वैरागिन के जुत्थ मह, तुलसी को अधिका । पठवहु लोगन वेगि तहँ, त्यावहि माल उतारः ॥ तब तिन करो कि है नहीं, हमको इतनी जोर । वंक दिस्टि करि लखि सके, तिन दासन की ओर ।। तुमहू निज समरस्थ हो, आपु चलौ यहि काज । तेहि पाछे हमहूँ चलहि, निज लै सफल समाज ॥ [चरित्र, पृष्ठ ४६] भाव यह कि 'कंठीमाला' कांड का संकेत तुलसी में भी है। तुलसी अपनी अनन्य निष्ठा के कारण किसी बादशाह की शरण में कभी नहीं गए। उनकी दृष्टि में तो- भारग मारि, महीसुर भारि, कुमारग कोटिक कै धन लीयो। संफर कोप सो पाप को दाम परीच्छित जाहिगो जारि के हीयो। कासी में कंटक जेते भए ते गे पाइ अघाइ के आपनो कीयो। भाजु कि काल्हि परौं कि नरौं जड़ जाहिंगे चाटि दिवारी को दीयो ।१७९॥ [कवितावली उत्तर०] किंतु लोकमंगल की भावना यह कि अपने 'महाराज' से अनुरोध करते हैं- एक तो कराल फलिकाल सूल - मूल तामें, कोढ़ में की. खाजु सी सनीचरी है मीन की । वेद धर्म दूरि गए, भूमिचोर भूप भए, साधु सीद्यमान जानि रीति पाप-पीन की।