पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२०७

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1 २०४ तुलसी की जीवन-भूमि दुखबहु मोरे दास जनि, मानेहु मोरि रजाइ । 'भले हि नाथ' माथे धरि आयसु चलेउ बजाइ ॥ १८ ॥ [वही, गीत ४०] फिर भी पता नहीं कि क्या हो गया जो तुलसी को कलप कर कहना पड़ा- चित्रकूट गए लखि कलि की कुचाल सब, अब अपडरनि डरयो हौं । इतना ही नहीं, अपितु- चीन्हों चोर जिय मारि है। तो फिर यह 'चिन्हारी' कैसी ? 'जिय' की चोरी तो नहीं है ? अनुमान के सहारे कहने को कुछ भी कह लिया जाय, किंतु 'कलि की कुचाल' का भंडाफोड़ अब भी कठिन ही है। हाँ, एक तुलसी का अति प्रसिद्ध दोहा है। कहते हैं किसी अनुभूति सहारे- घर कीन्हे घर जात है, घर छोड़े घर जाइ । तुलसी घर वन बीच ही, राम-प्रेमपुर छाइ ॥ २५६ ।। [ दोहावली] इसमें तुलसी की आप-बीती हो तो आश्चर्य क्या ? 'घर करने का प्रश्न भी कितना जटिल है ! परंतु 'राम-प्रेमपुर' का रहस्य क्या ? क्या हम प्रकृत परिशीलन के प्रकाश में 'शमपुर' के ढंग पर 'राम-प्रेमपुर' को चित्रकूट' नहीं मान सकते १ मार्ने वा न माने पर इतना तो प्रकट ही है कि 'कलिं की कुचाल' का कुछ नाता तुलसी के जीवन से अवश्य है । भावी पत्नी का स्वरूप यहीं खिला हो तो विस्मय की बात नहीं। वह 'महेवा' की रही हो तो कोई बात नहीं ! कहीं उसका जन्म तो हुआ ही होगा।