पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१७८

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तुलसी की जन्म-दशा दरबार के यह जान रखने की बात है कि नरहरि हुमायूँ के कवि थे और फलतः इनकी सहानुभूति भी पहले उधर ही थी। किंतु मुगल' का पासा ऐसा पलटा कि उन्हें - तुलसी का अविर्भाव शेरशाह के दरबार में आना पड़ा और जब 'सूर' वंश का सभी प्रकार पराभव हो गया। तब फिर 'चगवाई का होकर उन्हें रहना पड़ा। इधर. प्रायः इसी. काल में तुलसी : का क्या हुआ, इसको ठीक से कहने की क्षमता आज किसी में नहीं। तो भी उपलब्ध सामग्री में मूंड मारने से जो कुछ सूझ पड़ा उसका निष्कर्ष यह निकला कि तुलसी का आविर्भाव हुमायूँ के शासन में सं०.१५८९ में अयोध्या में हुआ। उस समय 'राम-मंदिर', 'बाबरी-मसजिद बन चुका था और वह 'इसलाम की शान' का चिन्ह और बावरी प्रभुता का द्योतक समझा जाता था। 'राम' के लगाव के कारण तुलसी की जन्म-दशा चिन्ता की देवी वन गई और बहुत कुछ कृष्ण की भाँति ही उनकी रक्षा हो . सकी । जब तक मुगल-शासन अवध में रहा तुलसी की दशा अच्छी न रही । जैसे-तैसे जीवन बीतता रहा। जब शेरशाह का सिक्का जमा तब तुलसी को भी कुछ शरण मिली । कारण यह कि एक कहर सुनी होते हुए भी वह दूसरे धर्मों के माननेवालों के साथ अच्छा बर्ताव करता था। उसने जजिया तो नहीं उठाया किंतु हिंदुओं के साथ न्याय और सहिष्णुता का पालन करता था। अपनी हिंदू प्रजा में विद्या के प्रचार के लिए वह उन्हें वक्फ देता था। उसके समय में हिंदू शासन-प्रबंध में काफी भाग लेते थे। इन कारणों से सभी धर्मों की प्रजा उसे चाहती थी। [ भारत का इतिहास, भाग ३, पृष्ठ ४२-३ 3