पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१७०

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तुलसी की जन्म-दशा १६७ यहाँ हम इतना और लिखना चाहते हैं कि बहुत थोड़े ही तोड़- फोड़ से मंदिर की मसजिद बन गई है। पुराने रावटी के खंभे अय मसजिद की शोभा, बढ़ा रहे हैं। मूसा आशिकान की का कटरे की सड़क पर वसिष्ठ कुंड के पास अब भी बताई जाती है परंतु का का निशान नहीं है और वह जगह बहुत ही गंदी है। एक जगह जन्म- स्थान के खभे गढ़े हैं। कहा जाता है कि जब : मूसा आशिशन भरने लगे तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि जन्म-स्थान का मंदिर हमारे ही कहने से तोड़ा गया है। इससे. इसके दो खंभे, विद्या कर हमारी लाश रक्सी जाय और दो हमारे सिरहाने गाद दिए जायें । [ अयोध्या का इतिहास, पृष्ठ १५२-४ ] अर्थात् सं० १५८५ में 'जन्म-स्थान' पर बावरी शासन हो गया और मंदिर मसजिद धना। फिर तो पता मसीत को सोइबो नहीं कि किस उमंग में आकर तुलसीदास ने स्वयं कभी लिख दिया कि- धूत फही, अवधूत फहौ, रजपूत कहौं,. बोलहा फहौ फोऊ । काहू की बेटी सों वेटा न न्याहब, काहू की जाति निगार न सोज । तुलसी सरनाम गुलाम हैं रामफो, जाको रुचै सो कहै कछु ओक । माँगि के खैबो मसीत को सोइत्रो, लैवे को एक न देबो को दोऊ ॥१०६|| [कविता०, उचर०] 'माँगि कै ईयों में तो कोई उलझन नहीं। तुलसी ने अपने 'माँगने की चर्चा अनेक बार की है। हाँ, बड़चन डालता - है यह- 'मसीत को सोइयो। सो मुहावरा यन गया तो कोई बात नहीं अन्यथा ऐसी दशा में